भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 128

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-4
ज्ञानमार्ग

  
8.परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

सज्जनों की रक्षा के लिए और दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं समय-समय पर जन्म धारण करता रहता हूँ। संसार को धर्म के मार्ग पर चलाते रहने का काम विष्णु, के रूप में परमात्मा का है, जो संसार का रक्षक है। जब पाप बढ़ जाता है, तब फिर धर्म की स्थापना करने के लिए वह जन्म लेता है।

9.जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोअर्जुन॥

जो व्यक्ति मेरे दिव्य जन्म और कार्यों को इस प्रकार सत्य रूप में जान लेता है, वह शरीर को त्यागने के बाद फिर जन्म नहीं लेता, अपितु अर्जुन, वह मेरे पास चला आता है। कृष्ण का अवतार या दिव्य भगवान् का मानवीय संसार में अवतरण प्राणी की उस दशा को प्रकट करता है, जिस तक मानवीय आत्माओं को ऊपर उठाना चाहिए। अजन्मा के जन्म का अर्थ है- मनुष्य की आत्मा में विद्यमान रहस्य का उद्घाटन। अवतार हम ब्रह्माण्ड की प्रक्रिया में अनेक कार्यां को पूरा करता है। इस धारणा से यह अर्थ निकलता है कि आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में परस्पर कोई विरोध नहीं है। यदि संसार अपूर्ण है और इसका शासन शारीरिक वासनाओं और शैतान द्वारा किया जा रहा है, तो यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम आत्मा के लिए इसका उद्धार करें। अवतार हमारे सम्मुख आध्यात्मिक जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके हमें वह मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर मनुष्य अस्तित्व के पाशविक स्वरूप से उठकर आध्यात्मिक स्वरूप तक पहुँच सकता है। दिव्य प्रकृति अवतार में अपने नग्न सौन्दर्य में दिखाई नहीं पड़ती, अपितु मनुष्यता के उपकरणों द्वारा उसका ध्यान किया जाता है। भगवान् का महत्त्व इन महान् व्यक्तियों के रूप में और इन्हीं के द्वारा हम तक पहुँचाया जाता है। उनके जीवन हमारे सम्मुख मानवीय जीवन के उन मूल घटक तत्त्वों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो उसके अपनी भवितव्यता की पूर्णता तक आरोहण के लिए आवश्यक हैं।


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः