भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 120

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति

निग्रह या संयम का कोई लाभ नहीं हो सकता, क्यों कि कर्म अनिवार्य रूप से प्रकृति की क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं और आत्मा तो केवल एक तटस्थ साक्षी-भर है। इस श्लोक से ऐसा ध्वनित होता है कि प्रकृति आत्मा के ऊपर सर्वशक्तिमान् सत्ता है और हमसे कहा गया है कि हम अपनी प्रकृति के अनुसार, अपने अस्तित्व के विधान के अनुसार कार्य करें। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने प्रत्येक मनोवेग के अनुसार आचरण करने लगें। यह तो इस बात का आदेश है कि हम अपने सच्चे अस्तित्व को खोज निकालें और उसे अभिव्यक्त करें। यदि हम चाहें, तो भी इसे दबाकर नहीं रख सकते। उल्लंघित प्रकृति अपना बदला अवश्य लेगी।

34.इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वषमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥

(प्रत्येक) इन्द्रिय के लिए (उस) इन्द्रिय के विषयों (के सम्बन्ध) में राग-द्वेष नियत हैं। मनुष्य को इन दोनों के काबू में नहीं आना चाहिए, क्योंकि उसके शत्रु हैं। मनुष्य को अपनी बुद्धि या समझ के अनुसार काम करना चाहिए। यदि हम अपने मनोवेगों के शिकार बन जाते हैं, तो हमारा जीवन वैसा ही निरुद्देश्य और बुद्धिहीन बन जाता है, जैसे कि पशुओं का होता है। यदि हम हस्तक्षेप न करें तो राग और द्वेष ही हमारे कर्मों का निर्धारण करते रहेंगे॥ जब तक हम कुछ कार्यां को इसलिए करते रहेंगे; परन्तु यदि हम इन मनोवगों को जीत लें और कर्तव्य की भावना से कार्य करें, तो हम प्रकृति की क्रीड़ा के शिकार नहीं होगें। मनुष्य की स्वतन्त्रता का उपयोग प्रकृति की आवश्यकताओं द्वारा सीमित अवश्य है,किन्तु बिलकुल समाप्त नहीं कर दिया गया।

35.श्रयान्स्वधर्मां विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मा भयावहः ॥

अपूर्ण रूप से पालन किया जा रहा भी अपना धर्म पूर्ण रूप से पालन किए जा रहे दूसरे के धर्म से अधिक अच्छा है। अपने धर्म का (पालन करते हुए) मृत्यु भी हो जाए, तो भी वह कहीं भला है, क्योंकि दूसरे का धर्म बहुत खतरनाक होता है। अपना काम करने वाले में कहीं अधिक आनन्द है, चाहे वह बहुत बढ़िया ढंग से न भी किया जा रहा हो, जबकि दूसरे के कर्त्तव्य को बहुत अच्छी तरह निबाहने में भी उतना आन्नद नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मनःशारीरिक रचना को समझने का यत्न करना चाहिए और उसके अनुसार ही कार्य करना चाहिए। हो सकता है कि हममें से सबको अधिविद्या की प्रणातियों की आधारशिलाएं रखने का अथवा उच्च विचारों को चिरस्थायी शब्दों में प्रस्तुत करने का कार्य न मिला हो। हम सबको एक-सी प्रतिभाएं नहीं मिलीं। परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यह नहीं है कि हममें पांच प्रकार की प्रतिभाएं हैं या केवल एक प्रकार की, अपितु महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो काम हमें सौंपा गया है, उसे हम कितनी निष्ठा के साथ करते हैं। हमें अपना सौंपा गया काम, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, पुरुषार्थ पूर्वक करना चाहिए। अच्छाई किस्म की पूर्णता की द्योतक है। व्यक्ति का कर्त्तव्य कितना ही अरुचिकर क्यों न हो, परन्तु मनुष्य को मरण-पर्यन्त उस कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान् रहना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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