भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 115

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

Prev.png
अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
22.न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

हे पार्थ (अर्जुन), मेरे लिए तीनो लोकों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है,जो करना आवश्यक हो और न ऐसी ही कोई वस्तु है, जो मुझे प्राप्त न हो और मुझे प्राप्त करनी हो; फिर भी मैं कर्म मे लगा ही रहता हूँ। परमात्मा का जीवन और संसार का जीवन एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। [1]

23.यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यमकन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

भगवद्गीता यदि मैं निरालस्य होकर सदा कर्म में न लगा रहूँ, तो हे पार्थ (अर्जुन), सब लोग सब प्रकार मेरे ही मार्ग का अनुसरण करने लगें।

24.उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाःप्रजाः ॥

यदि मैं कर्म करना छोड़ दूं, तो ये लोग (संसार) नष्ट हो जाएं और मैं संकर (अव्यस्थित जीवन) को उत्पन्न करने वाला बनूं और इस प्रकार इन लोगों का विनाश कर बैठूं। परमात्मा अपनी अनवरत गतिविधि द्वारा संसार को सुरक्षित बनाए रखता है और इसे वापस अनस्तित्व में गिरने से रोके रखता है। [2]


Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत से तुलना कीजिए, ऐश्वर्य के नाम पर मैं सारे संसार की दासता करता हूँ दास्यमैश्वर्यवादेन ज्ञातीनां तु करोम्यहम्। तुलना कीजिए, महाभारत,3,313,17: तर्कोअप्रतिष्ठ: श्रुतियो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥
  2. सेण्ट टाँमस से तुलना कीजिएः ’’जिस प्रकार किसी वस्तु को अस्तित्वमान रूप में उत्पन्न करना परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है, उसी प्रकार यह भी उसी इच्छा पर निर्भर है कि उस वस्तु को बनाए रखा जाए; इसलिए यदि वह अपने कर्म को उन वस्तुओं से अलग कर ले, तो सब वस्तुएं शून्य रह जाएंगी।’’- सम्मा थियोलोजिया, 1,9,2 सी।

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः