भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 114

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति

  

दूसरो के लिए उदाहरण उपस्थित करो

20.कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥

जनक तथा अन्य लोक कर्म द्वारा ही पूर्णता तक पहुँचे थे। तुझे संसार को बनाए रखने के लिए (लोकसंग्रह के लिए) भी कर्म करना चाहिए। जनक मिथिला का राजा था। वह सीता का,जो राम की पत्नी थी, पिता था। जनक कर्तृत्व की वैयक्तिक भावना को त्यागकर शासन करता था। शंकराचार्य ने भी कहा है कि जनक आदि ने इसलिए कर्म किए कि जिससे साधारण लोग मार्ग से न भटक जाएं। वे लोग यह समझकर काम करते थे कि उनकी इन्द्रिया-भर कार्यों में लगी हुई हैं, गुणा गुणेषु वर्तन्ते। जिन लोगों ने सत्य को नहीं जाना है, वे भी आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते रह सकते हैं। 2,10। लोक संग्रह: संसार को बनाए रखना। लोकसंग्रह का अभिप्राय संसार की एकता या समाज की परस्पर-सम्बद्धता से है। यदि संसार को भौतिक कष्ट और नैतिक अधःपतन की दशा में नहीं गिरना है, यदि सामान्य जीवन को सुचारु और सगौरव होना है, तो सामाजिक कर्म का नियन्त्रण धार्मिक नीति से होना चाहिए। धर्म का उद्देश्य समाज का आध्यात्मिकीकरण करना है, पृथ्वी पर भ्रातृभाव की स्थापना करना। हमें पार्थिव संस्थाओं में आदर्षों को साकार करने की आशा से प्रेरणा मिलनी चाहिए। जब भारतीय जगत् की जवानी समाप्त हो चली,तब इसका झुकाव परलोक की ओर हो चला। श्रान्त वयस् में हम त्याग और सहिष्णुता के सन्देषों को अपना लेते हैं। आशा और ऊर्जा की वयस् में हम संसार में सक्रिय सेवा और सभ्यता की रक्षा करने पर जोर देते हैं। बोइथियस ने जोर देकर कहा है कि ’’ जो अेकला स्वर्ग जाने को तैयार है,वह कभी स्वर्ग में नहीं जाएगा।’’

21.यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो करता है, सामान्य लोग वैसा ही करने लगते हैं। वह जैसा आदर्श उपस्थित करता है, उसी का लोग अनुगमन करने लगते हैं। सामान्य लोग श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा स्थापित किए गए आदर्शों का अनुकरण करते हैं। प्रजातन्त्र का महापुरुषों में अविश्वास के साथ कुछ घपला कर दिया गया है। गीता इस बात को स्पष्ट रूप से कहती है कि महापुरुष ही मार्ग बनाने वाले होते हैं। वे जो रास्ता दिखाते हैं, अन्य लोग उनका अनुगमन करते हैं। प्रकाश सामान्यतया उन व्यक्तियों द्वारा ही प्राप्त होता है, जो समाज से आगे बढ़े हुए होते हैं। जब उनके साथी नीचे घाटी में सो रहे होते हैं। ईसा के शब्दों में, वे मानवसमाज के ’नमक’,’खमीर’ और ’प्रकाश’ हैं। जब वे उस प्रकाश की आभा की घोषणा करते हैं, तब थोडे़ -से लोग उसे पहचान पाते हैं और धीरे-धीरे बहुत-से लोग उनके अनुयायी बनने को तैयार हो जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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