भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए यज्ञ के लिये या यज्ञ के रूप में किए जाने वाले कार्यों को छोड़कर यह सारा संसार कर्म-बन्धन में डालने वाला है। इसलिए हे कुन्ती-पुत्र (अर्जुन), सब प्रकार की आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञ के रूप में तू अपना कार्य कर। शंकराचार्य ने यज्ञ को विष्णु के समान बताया है। रामानुज ने इसकी व्याख्या षाब्दिक तौर पर यज्ञ या बलिदान के रूप में की है। सारे कार्य यज्ञ की भावना से भगवान् के लिए किए जाने चाहिए। मीमांसा की इस मांग को स्वीकार करते हुए, कि हमें यज्ञ के प्रयोजन के लिए कर्म करना चाहिए, गीता हमसे कहती है कि हम इस प्रकार का कर्म फल कोई भी आशा किए बिना करें। इस प्रकार के मामलों में अनिवार्य कर्म में बन्धन की शक्ति न रहेगी। स्वयं ’यज्ञ’ की व्याख्या एक विस्तृततर अर्थ में की गई है। यहाँ वैदिक देवताओं के प्रति धार्मिक कर्तव्य भगवान् के नाम पर सृष्टि की सेवा बन जाता है। 10.सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । प्राचीन समय में प्रजापति ने यज्ञ के साथ प्राणियों को उत्पन्न किया और कहाः ’’इसके द्वारा तुम सन्तान उत्पन्न करो और यह यज्ञ तुम्हारी अभीष्ट इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होगा।’’[1] कामधुक् इन्द्र की पौराणिक गाय है,जिससे मनुष्य जो चाहे, वह उसे मिल जाता है। अपने नियत कर्तव्य का पालन करने से मनुष्य का उद्धार हो सकता है। 11.देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । इसके द्वारा तुम देवताओं को पोषण करो और देवता तुम्हारा पोषण करें। इस प्रकार एक दूसरे का पोषण करते हुए तुम सब परम कल्याण को प्राप्त करोगे। देखिए, महाभारत ,शान्तिपर्व,340, 59-62। जहाँ देवताओं और मनुष्यों की परम्पराश्रितता का वर्णन इससे मिलते-जुलते रूप में किया गया है। 12.इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभावितः । यज्ञ से प्रसन्न होकर देवता तुम्हें वे सब सुख -भोग प्रदान करेंगें, जिन्हें तुम चाहते हो। जो व्यक्ति उनके द्वारा दिए गए इन उपहारों का उपभोग देवताओं को बिना दिए करता है, वह तो चोर ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋग्वेद से तुलना कीजिए: केवलाघो भवति केवलादी। 10,117,6 तुलना कीजिए ; मनु, 3, 76,118।
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