भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 11

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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4.सर्वोच्च वास्तविकता

जिस जिज्ञासा के कारण प्लेटो को अकादमी के ज्योतिषियों को यह आदेश देने की प्रेरणा मिली कि वे प्रकट दीख पड़ने वाली वस्तुओं (प्रतीतियों) से बचें, उसी रुचि के कारण उपनिषदों के ऋषियों को संसार को अर्थ पूर्ण समझने की प्रेरणा मिली। तैत्तिरीय उपनिषद के शब्दों में - “भगवान् वह है, जिससे ये सब वस्तुएं उत्पन्न होती हैं, जिससे ये सब जीवित रहती हैं और जिसमें विदा होते समय ये सब विलीन हो जाती हैं।” वेद के अनुसार “परमात्मा वह है, जो अग्नि में है और जो जल में है, जिसने लिखित विश्व को व्याप्त किया हुआ है। उसे, जो कि पौधों में और पेड़ों में है, हम बारम्बार प्रणाम करते हैं।” [1]“यदि यह सर्वोच्च आनन्द आकाश में न होता, तो कौन परिश्रम करता और कौन जीवित रहता?”[2]ईश्वरवादी यह स्वर श्वेताश्वतर उपनिषद में और भी प्रमुख हो उठता है। “वह जो एक है और जिसका कोई रूप-रंग नहीं है, अपनी बहुविध शक्ति को धारण करके किसी गुप्त उद्देश्य से अनेक रूप-रंगों को बनाता है और आदि में और अन्त में विश्व उसी में विलीन हो जाता है। वह परमात्मा है। वह हमें ऐसा ज्ञान प्रदान करे, जो शुभ कर्मों की ओर ले जाता है।”[3]फिर “तू स्त्री है, तू ही पुरुष हैः तू ही युवक है और युवती भी है; तू ही वृद्ध पुरुष है, जो लाठी लेकर लड़खड़ाता चलता है; तू ही नवजात शिशु है; तू सब दिशाओं की ओर मुख किए हुए है।”[4]फिर, “उसका रूप देखा नहीं जा सकता। आँख से उसे कोई नहीं देखता। जो लोग उसे इस प्रकार हृदय द्वारा और मन द्वारा जान लेते हैं कि उसका निवास हृदय में है, वे अमर हो जाते हैं।”[5]वह सार्वभौम परमात्मा है, जो अपने-आप ही यह विश्व भी है, जिसे उसने अपने ही अन्दर धारण किया हुआ है। वह हमारे अन्दर विद्यमान प्रकाश है, ‘हृद्यन्‍तर्ज्‍योतिः’। वह भगवान है, जीवन और मृत्यु जिसकी छाया हैं।[6]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यो देवोऽग्नो योप्सु यो विश्व भुवनमाविवेश,
    यो ओषधिषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमोनमः।

  2. को ह्नेवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्?
  3. 4, 1
  4. 4, 3
  5. 4, 20
  6. ऋग्वेद 10, 121, 2: साथ ही देखिए कठोपनिषद् 3, 1। ड्यूटरोनोमी से तुलना कीजिएः“मैं मारता हूँ और जिलाता हूँ।” 32, 39

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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