भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 100

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास
पूर्ण प्रज्ञावान्‌ की विशेषताएं
अर्जुन उवाच

  
54.स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥

(54)हे केशव (कृष्ण), जिस व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो गई है और जिसका अस्तित्व आत्मा में स्थिर हो गया है, वह किस प्रकार का होता है? इस प्रकार के स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति को किस ढ़ग से बोलना चाहिए, किस ढंग से उसे बैठना चाहिए और किस ढंग से उसे चलना चाहिए?हिन्दुओं की जीवन-व्यवस्था में अन्तिम सोपान संन्यास का है, जिसमें कि सब कर्मकाण्ड छूट जाता है और सामाजिक उत्तरदायित्व त्याग दिए जाते हैं। पहला सोपान विद्यार्थी-शिष्य जीवन का है (ब्रह्मचर्य); दूसरा गृहस्थ का और तीसरा वानप्रस्थ का और चैथा, अन्तिम सोपान पूर्ण परित्याग(संन्यास) का है। जो लोग गृहस्थ-जीवन को त्याग देते हैं और गृहहीन जीवन को अपना लेते हैं,वे संन्यासी हैं। वैसे तो मनुष्य इस दशा में किसी भी समय प्रवेश कर सकता है,परन्तु सामान्यतया यह अवस्था अन्य तीनों सोपानों में से गुजरने के बाद आती है। संन्यासी संसार के लिए बिलकुल मर जाते हैं, और जब वे अपने घर छोड़कर परिव्राजक या गृहहीन भटकने वाले बन जाते हैं, तब अन्त्येष्टि-संस्कार की विधियाँ भी पूरी की जाती हैं। ये विकसित आत्माएं अपने उदाहरण द्वारा उस समाज पर प्रभाव डालती हैं, जिसकी कि अब वे अंग नहीं होतीं। वे समाज की अन्तरात्मा बन जाती हैं। उनकी वाणी स्वतन्त्र होती है और उनकी दृष्टि अरुद्ध होती है। यद्यपि उनका मूल हिन्दू धार्मिक संगठन मे होता है, फिर भी वे बढ़कर उससे ऊपर उठ जाते हैं और अपने मन की स्वतन्त्रता और उनकी दृष्टिकोण की सार्वभौमता के कारण वे दूषित करने वाली शक्ति और अधिकारवादियों के जनद्वेषी समझौतों के लिए एक चुनौती होते हैं। उनका अधिसामाजिक जीवन परम मूल्यों की वैधता का साक्षी होता है, जिनसे कि अन्य सामाजिक मूल्यों का जन्म होता है। वे ही ऋषि होते हैं और अर्जुन यह जानना चाहता है कि इस प्रकार की विकसित आत्माओं की पहचान क्या है; उनके दीख पड़ने वाले लक्षण कौन-से हैं।

55.प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

श्री भगवान् ने कहाः (55)जब मनुष्य अपने मन की सब इच्छाओं को त्याग देता है और जब उसकी आत्मा अपने अन्दर ही सन्तुष्ट रहती है, तब हे पार्थ (अर्जुन), वह स्थित-प्रज्ञ (जिसकी बुद्धि स्थिर हो गई है) कहलाता है।नकारात्मक रूप से यह दशा से यह दशा स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से मुक्त हो जाने की दशा है और सकारात्मक रूप से यह भगवान् में एकाग्रता की दशा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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