भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 85

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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भगवदर्शन

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥[1]

अपरिमित, जगमगाते हुए तेज के पुंज, सूर्य या प्रज्वलित अग्नि के समान, सभी दिशाओं में देदीप्यमान, मुकुट, गदा और चक्र के साथ आपको मैं देख रहा हूँ।

त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥18॥[2]

आप अक्षर, परात्पर एवं ज्ञातव्य हैं। आप इस जगत् के परम निधान हैं। आप शाश्वत प्रकृति के सनातन संरक्षक हैं।

त्वामादिदेव: पुरुष: पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥38॥[3]

आप आदि देव हैं; आप पुरातन पुरुष हैं; आप इस विश्व के परम आश्रयस्थान हैं; आप जानने वाले और आप ही जानने योग्य हैं; आप परम धाम हैं; हे अनन्त रूप! इस जगत् में आप व्याप्त हो रहे हैं।

वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशांक्ङ:प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व:पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥39॥[4]

आप वायु, यम, अग्नि, वरुण और चन्द्र हैं। आप ही प्रजापति, प्रपितामह हैं; आपको नमस्कार! सहस्त्र नमस्कार! मैं बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 11-17
  2. दोहा नं0 11-18
  3. दोहा नं0 11-38
  4. दोहा नं0 11-39

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