भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 80

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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जगत् की एकता

अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे ।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥18॥[1]

दिन आरम्भ होने पर सब अव्यक्त में से व्यक्त होते हैं। रात होने पर वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं।

भूतग्राम: स एवायं भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥19॥[2]

प्राणियों का वह समस्त समुदाय इस प्रकार बरबस पैदा होकर रात होने पर विलीन हो जाता है और दिन होने पर प्रकट होता है।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन: ।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥20॥[3]

इस अव्यक्त से परे दूसरा सनातन अव्यक्त भाव है। समस्त भूतों के नष्ट होने पर भी वह नष्ट नहीं होता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 8-18
  2. दोहा नं0 8-19
  3. दोहा नं0 8-20

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