भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 74

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपा

सर्व गुह्यतमं भूय: श्रृणु मे परमं वच: ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥64॥[1]

पुनः मेरा सबसे गुह्य परम वचन सुन। तू मुझे प्रिय है, इसलिये मैं तेरे हित के लिये जोर देकर उसे कहता हूँ।

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65॥[2]

मुझ से लगन लगा, मेरा भक्त बन, मेरे लिए यज्ञ कर, मुझे नमस्कार कर, तू मुझे ही प्राप्त करेगा। यह मेरी सत्य प्रतिज्ञा है। तू मुझे प्रिय है।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥66॥[3]

सब कर्मों का त्याग करके एक मेरी ही शरण ले। शोक मत कर, मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूंगा।

ईश्वर के सिवा और किसी का भी आश्रय लेना व्यर्थ है। हमारे पाप कैसे भी हों, यदि उनके लिए हमारे मन में पश्चाताप है और अपने आपको हम ईश्वर की कृपा पर छोड़ देते हैं, तो वह अवश्य हमारा त्राण करेगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 18-64
  2. दोहा नं0 18-65
  3. दोहा नं0 18-66

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