भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 72

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

आत्मसमर्पण और ईश्वर की कृपा

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥[1]

मुझमें निरन्तर तन्मय रहने वाले प्रेमी भक्तों को मैं ज्ञान-योग प्रदान करता हूँ और उससे वे मुझे पाते हैं।

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥[2]

उन पर दया करके उनके हृदय में स्थित मैं ज्ञानरूपी प्रकाशमय दीपक से उनके अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करता हूँ।

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते ॥5॥[3]

जिनका मन अव्यक्त में लगा हुआ है, उनका काम बहुत कठिन है, क्यों कि अव्यक्त को देहधारी कठिनता से ही पा सकता है।

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा: ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासने ॥6॥[4]

जो अपने सब कर्म मुझे समर्पित करते हैं, मुझ में परायण हैं और एकनिष्ठा से मेरा ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं-

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 10-10
  2. दोहा नं0 10-11
  3. दोहा नं0 12-5
  4. दोहा नं0 12-6

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः