भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 70

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आदर्श-तप-आहार

आयु: सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना: ।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया: ॥8॥[1]

आयुष्य तथा प्राणशक्ति, शारीरिक बल, आयोग्य, सुख और प्रीति बढ़ाने वाले आहार, जो सुस्वादु हों, पौष्टिक और तृप्तिकारक हों, सात्विक स्वभाव के लोगों को प्रिय होते हैं।

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्ण रूक्ष विदाहिन: ।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ॥9॥[2]

राजसी लोग, तीखे, खट्टे, खारे, बहुत गर्म, चरपरे, सूखे, और दाहकारक आहारों की इच्छा करते हैं ये रोग, दुःख और शोक उत्पन्न करने वाले होते हैं।

यातयाम गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥[3]

जो आहार ताजा नहीं है, जिसका स्वाद नष्ट हो गया है, जो बासा, दुर्गन्धित, जूठा और अपवित्र है, वह तामसिक स्वभाव वाले लोगों को प्रिय होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 17-8
  2. दोहा नं0 17-9
  3. दोहा नं0 17-10

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