भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 7

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आत्मा

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपा:।
न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम् ॥12॥[1]

मैं, तू अथवा ये राजा पहले कभी नहीं थे या हममें से कोई भविष्य में कभी न होगा, ऐसा नहीं है।

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥13॥[2]

जिस प्रकार देहधारी आत्मा शरीर की कुमार, युवा तथा वृद्ध अवस्था से पार होता है। उसी प्रकार वह दूसरे शरीर में भी चला जाता है। बुद्धिमान लोग उसकी इस देहान्तर-प्राप्ति से विचलित नहीं होते।

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥17॥[3]

जो आत्मा इस पृथ्वी के समस्त प्राणियों में व्याप्त है उसे तू अविनाशी जान। उस अविनाशी का नाश कोई नहीं कर सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 2-12
  2. 2-13
  3. 2-17

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