भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 69

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आदर्श-तप-आहार

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥21॥[1]

जो दान बदला पाने के लिये अथवा फल को लक्ष्य करके किया जाता है और जो खिन्न होकर दिया जाता है, वह राजसिक दान माना जाता है।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥22॥[2]

देश तथा काल का विचार किये बिना, अयोग्य पात्र को अपमान या तिरस्कार से दिया हुआ दान तामसी कहा जाता है।

हमारे दैनिक आहार का प्रभाव हमारी मनोवृत्ति और चरित्र पर पड़ता है। वह आत्मा के लिए अच्छा और बलवर्धक-सात्विक; या शांति को भंग करने वाला, विकारोत्पादक-राजसकि; या पूर्णतः सदोष, मन और बुद्धि की अवनति करने वाला तथा अकर्मण्यता को बढ़ाने वाला- तामसिक हो सकता है।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥7॥[3]

मनुष्यों को रुचने वाला आहार तीन प्रकार का होता है, जैसा यज्ञ, तप और दान भी। इनका भेद तू सुन।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 17-21
  2. दोहा नं0 17-22
  3. दोहा नं0 17-7

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