भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 68

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आदर्श-तप-आहार

मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥16॥[1]

मन की शांति, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और विचारशुद्धि-यह मानसिक तप कहलाता है।

दान, प्रेरकहेतु के अनुसार, अच्छा, व्यर्थ, या बुरा होता है। हमें आनन्द के साथ दान करना चाहिए, खिन्न होकर नहीं। उसमें हमें कर्त्तव्य का भाव रखना चाहिये, प्रतिफल की आशा नहीं। दान का पुण्य प्राप्त करने का भाव भी उसमें नहीं होना चाहिये। गीता में मनुष्य के कर्मों, कामनाओं, अभिरुचियों और, वास्तव में तो, सभी कुछ को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-पहला, जिसमें सत्य और युक्तता का प्राधान्य होता है, सात्विक है; दूसरा, जिसमें कर्म-प्रवृत्ति और काम, क्रोध, आदि विकारों का प्रबलता होती है, राजसिक है; तीसरा और निम्नतम तामसिक है; उसमें अकर्मण्यता का साम्राज्य रहता है।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥20।[2]

प्रतिफल मिलने की आशा के बिना, देना कर्तव्य है, ऐसा मानकर योग्य देश तथा काल में, योग्य पात्र को जो दान दिया जाता है, वह सात्विक दान कहलाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 17-16
  2. दोहा नं0 17-20

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