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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
अनीश्वरवाद(अध्याय 17-श्लोक, 3,5,-10, 14-16, 20-22) प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के परिणाम-स्वरूप विशेष स्वभाव लेकर उत्पन्न होता है। उसी स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा का निर्माण होता है, तथापि हम जिस श्रद्धा का पालन विवेक बुद्धि से करते हैं, उसकी भी प्रतिक्रिया हम पर होती हैं इसलिये हमें अपने सामने अच्छे आदर्श रखने चाहिये। स्वाभाविक प्रवृत्ति और गृहीत आदर्शों के बीच होने वाली क्रिया और प्रतिक्रिया निम्नलिखित श्लोकों में स्पष्ट की गई है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया में ही उन्नति की आशा निहित हैः सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । सब मनुष्यों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार बनती है। मनुष्य श्रद्धामय है। मनुष्य जिस पर श्रद्धा रखता है, वही वह भी है। हमें न केवल अपना मन सही आदर्शों पर लगाना चाहिये, वरन् अपने सब कामों को भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से नियमित करना चाहिये। ‘धार्मिक’ कर्म-चाहे वह यज्ञ हो, तप हो, उपासना हो, या दान हो- दिखावे या स्वार्थ-साधन के लिये नहीं किया जाना चाहिए। केवल दंभ के कारण या स्वार्थ की आशा से तप करना लाभजनक नहीं, उल्टे हानिकारक होता है। अपने शरीर को नष्ट कर देना ही तप नहीं होता। अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: । जो लोग दंभ और अहंकार से और काम तथा राग के बल से प्रेरित होकर शास्त्रीय विधि से रहित घोर तप करते हैं- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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