भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 65

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

अनीश्वरवाद

जाति का दंभ और तथाकथित संस्कृति अथवा सभ्यता का मिथ्याभिमान या परोपकार भी उन पापों के फल से रखा नहीं कर सकता, जिन पर इन सबकी इमारत खड़ी हुई है।

आत्मसंभाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥17॥[1]

मिथ्याभिमानी, हठी, धन तथा मान के मद में चूर ये लोग दिखावे के लिए नाम-मात्र के और विधिरहित यज्ञ करते हैं।

अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता: ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका: ॥18॥[2]

अहंकार, शक्ति-लोलुपता, घमंड, काम और क्रोध का आश्रय लेने वाले ये निंदक-जन दूसरों के और अपने शरीर में रहने वाले ईश्वर से द्वेष करते हैं।

अन्तरात्मा की आवाज न सुनना, अपना अधः पतन करना या दूसरों को हानि पहुंचाना ईश्वर के द्वेष के समान है; क्योंकि ईश्वर सब मनुष्यों के आत्मा में निवास करता है और उनके द्वारा दुःख भोगता है। अगले अध्याय में पृष्ठ 67 पर उद्धृत सत्रहवें अध्याय का छठा श्लोक भी देखिये।

केवल तृष्णा की पूर्ति पर आश्रित जीवन के सब नियम विनाश की ओर ले जाते हैं। यह निर्णय करने में कि क्या शुभ और उचित है, मनुष्यों को पूर्वगामियों के अनुभव से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए

ईश्वर और सत्य की खोज के फलस्वरूप साधुजनों और ज्ञानियों ने हमें ज्ञान का जो उत्तराधिकार प्रदान किया है, वही शास्त्र है। मनुष्य-जाति की प्रत्येक पीढ़ी के अनुसंधान की नींव पर नया भवन खड़ा करे, अन्यथा हम सिसिफस1 के समान अनंत काल तक पहाड़ पर पत्थर चढ़ाने के जैसे निष्फल कार्य में लगे रहेंगे।

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत: ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥23॥[3]

जो मनुष्य शास्त्र विधि को छोड़कर स्वेच्छा से भोगों में लीन होता है, वह परम लक्ष्य के मार्ग पर नहीं चलता और न वह आध्यात्मिक शक्ति अथवा सांसारिक सुख ही प्राप्त कर सकता है।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥24॥[4]

इसलिये कार्य और अकार्य का निर्णय करने में तुझे शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिये। शास्त्र-विधि क्या है यह जानकर इस संसार में तुझे कर्म करना चाहिए।[5]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 16-17
  2. दोहा नं0 16-18
  3. दोहा नं0 16-23
  4. दोहा नं0 16-24
  5. 1. सिसिफस-यूनानी पौराणिक कथाओं का एकमात्र पात्र। इसे नरक में पहाड़ पर पत्थर चढ़ाते रहने का दण्ड दिया गया था। यह जो पत्थर बड़े परिश्रम से चढ़ाता, वह नीचे लुढ़क जाता था और यह उसे फिर से चढ़ाता था। यही क्रम चलता रहता था।-अनु.

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः