भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 64

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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अनीश्वरवाद

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्यस्ये मनोरथम् ।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥13॥[1]

‘‘आज मैंने पाया, यह मनोरथ (अब) पूरा करूंगा; यह धन तेरा तो मेरा है ही और यह भी शीघ्र ही मेरा हो जायेगा-

असौ मया हत: शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥14॥[2]

‘‘इस शत्रु को तो मारा, दूसरे को भी मारूंगा, मैं शासन करता हूँ, भोग मेरे इच्छाधीन है, सिद्धियाँ मेरे वश में हैं, मैं बलवान हूँ, सुखी रहने के लिये ही मैं पैदा हुआ हूँ-

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता: ॥15॥[3]

‘‘मैं श्रीमान् हूँ, मैं कुलीन हूँ, मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूंगा, दान दूंगा, मौज करूंगा’’-इस प्रकार के अज्ञान से विमूढ़ हुए।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालंसमावृता: ।
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽश्चौ ॥16॥[4]

अनेक विचारों से भ्रमित, मोहजाल में फंसे, विषय-भोग में मस्त हुए मनुष्य मलिन नरक में पड़ते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 16-13
  2. दोहा नं0 16-14
  3. दोहा नं0 16-15
  4. दोहा नं0 16-16

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