भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 61

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

सबके लिए आशा

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: ।
स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥32॥[1]

जो भी तेरा आश्रय ग्रहण करते हैं, वे परम गति को प्राप्ति करते हैं-चाहे वे स्त्रियां हों, वैश्य हों, शूद्र हों या पापयोनि में उत्पन्न हुए व्यक्त हों।

हार्दिक प्रार्थना और पश्चाताप से पूर्व कर्मों का प्रभाव नष्ट हो जाता है, परंतु मनुष्य को इस धारणा से जान-बूझकर पाप-कर्म में प्रवृत्त नहीं होना चाहिये कि बाद को उसका पाप धुल सकता है। कर्मों का प्रभाव केवल सच्चे पश्चाताप से मिटता है, और सच्चा पश्चाताप इस प्रकार नहीं होता। वह अत्यन्त कष्टमय मानसिक साधन; स्वयं ग्रहण किया हुआ दण्ड और पूर्व-पापों को शांत तथा शुद्ध करने वाला साधन है; परन्तु उसका यह परिणाम सच्चाई से सहे हुए कष्ट के अनुपात में ही होता है।

पश्चाताप तथा आत्मग्लानि और भागवत प्रसाद तथा कृपा के लिये प्रार्थना शुद्ध मानसिक क्रियाएं हैं, न कि केवल शब्दोच्चार, विधियों के यांत्रिक अनुष्ठान या पुरोहितों द्वारा प्रदान की हुई पापमुक्ति। शब्द, विधि-अनुष्ठान और पुरोहित प्रेरणा देने में और पश्चाताप की मनः-स्थिति उत्पन्न करने में सहायक हो सकते हैं, परंतु केवल उनसे ही पाप का प्रक्षालन नहीं होता। मनुष्य अपने आपको और दूसरों को धोखा दे सकता है; परंतु वह साक्षात् सत्य को धोखा नहीं दे सकता और कर्म अव्यय सत्य है। आप रोगी को उसके तापमान के संबंध में या ग्राहक को बेची हुई वस्तुओं के तोल के संबंध में भले ही धोखा दे सकें, परन्तु तापमापक-यंत्र या तराजू को धोखा नहीं दे सकते।

उपासना की विधियों का विशेष महत्व नहीं है। उनमें अन्तर हो सकता है, परन्तु वास्तव में वह सब एक ही हैं तथाकथित धार्मिक मतभेदों के प्रति यही हिंदू धर्म का महान् सर्वप्रधान और अनुपम भाव है।

निःसंदेह, यह शिक्षा उस समय प्रचलित उपासना के समत्व स्वरूपों लक्ष्यों की एकता से संबंध रखती है। हम यह दावा नहीं कर सकते कि बहुत बाद में प्रचलित हुए धर्मों हम यह दावा नहीं कर सकते कि बहुत बाद में प्रचलित हुए धर्मों और धार्मिक आचरण का भी उस समय विचार कर लिया गया था; परन्तु इस तत्व का निरूपण इतने व्यापक शब्दों में किया गया है और इसके मूल सिद्धांतों का आधार इतना विस्तीर्ण है कि यह सब धर्मों पर लागू हो सकता है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 9-32

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः