भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 56

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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आनुवंशिक संस्कार

नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा दृष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मदूभावं सोऽधिगच्छति ॥19॥[1]

जो पुरुष जान गया है कि भौतिक प्रकृति के गुणों के सिवा कोई कर्ता नहीं है, और जिसने उसे देख लिया है, जो इन गुणों से परे है, उसने मेरे भाव को प्राप्त कर लिया है।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै: ॥40॥[2]

पृथ्वी पर या देवताओं के मध्य स्वर्ग में ऐसा कोई भी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से मुक्त हो।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा ।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥60॥[3]

तू मोह वश होने के कारण जो नहीं करना चाहता, वह भी अपनी प्रकृति के प्रभाव से विवश होकर करेगा।

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देश्ऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥61॥[4]

ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में वास करता है और माया के बल से उन्हें यंत्र पर चढ़ी हुई पुतलियों की तरह घुमाता रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 14-19
  2. दोहा नं0 18-40
  3. दोहा नं0 18-60
  4. दोहा नं0 18-61

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