भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 53

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

उदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते ॥23॥[1]

जो बदलती हुई मनोदशाओं से अपने अन्तरात्मा को यह सोचकर अलिप्त रखता है कि ‘‘मेरे भौतिक शरीर के गुण अपनी स्वाभाविक गति से चल रहे हैं, ’’ और अविचलित रहता है-

समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति: ॥24॥[2]

जो सुख और दुःख का समान स्वागत करता है, स्वस्थ रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने को समान समझता है, प्रिय और अप्रिय में भेद नहीं करता और निन्दा तथा स्तुति में समान रहता है-

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते ॥25॥[3]

जो मान तथा अपमान में एक ही भाव रखता है, मित्र और शत्रु को एक ही दृष्टि से देखता है, जिसने समस्त सांसारिक समारंभों का त्याग कर दिया है, वह गुणातीत बताया गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 14-23
  2. दोहा नं0 14-24
  3. दोहा नं0 14-25

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