भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानउदासीनवदासीनो गुणैर्या न विचाल्यते । जो बदलती हुई मनोदशाओं से अपने अन्तरात्मा को यह सोचकर अलिप्त रखता है कि ‘‘मेरे भौतिक शरीर के गुण अपनी स्वाभाविक गति से चल रहे हैं, ’’ और अविचलित रहता है- समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकाञ्चन: । जो सुख और दुःख का समान स्वागत करता है, स्वस्थ रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने को समान समझता है, प्रिय और अप्रिय में भेद नहीं करता और निन्दा तथा स्तुति में समान रहता है- मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो: । जो मान तथा अपमान में एक ही भाव रखता है, मित्र और शत्रु को एक ही दृष्टि से देखता है, जिसने समस्त सांसारिक समारंभों का त्याग कर दिया है, वह गुणातीत बताया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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