भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 52

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

जो निन्दा और स्तुति को समान भाव से देखता है, मौन रखता है, जो कुछ मिल जाय उसी में सन्तुष्ट रहता है, किसी स्थान को अपना घर नहीं मानता और स्थिर चित्तवाला है, वह मेरा भक्त है और ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।

कर्मों के नियमन और नियमित ध्यान से इस प्रकार विकसित हुआ मन का ममत्व आनुवंशिक भौतिक शरीर की शक्तियों से कभी भी भंग हो सकता है। मनुष्य को आत्म-साक्षात्कार हो जाने पर भी उसके आनुवंशिक भौतिक शरीर की ये शक्तियाँ अपना काम करती ही रहती हैं; परन्तु बुद्धिमान पुरुष निरन्तर सत्य का स्मरण करता हुआ अपनी रक्षा करता हैं वह अपनी प्रकृति के बदलते हुए भावों से अशांत नहीं होता। ये भाव कभी मानसिक समता और कभी कर्म की स्फूर्ति, अथवा फिर से, निष्क्रियता की वृत्ति के रूप में प्रकट हो सकते हैं।

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥[1]

जो प्रकाश, प्रवृत्ति और मोह प्राप्त होने पर उनका स्वागत ही करता है, परन्तु इनके विलुप्त हो जाने पर फिर से इनकी इच्छा नहीं करता-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 12-19

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