भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानयस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: । जो दूसरे प्राणियों को उद्विग्न नहीं करता और जो स्वयं संसार से उद्विग्न नहीं होता, जो सहर्ष, क्रोध और भय के उद्वेगों से मुक्त है, वह मुझे प्यारा है। अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ: । जो इच्छा रहित है, पवित्र है, दक्ष है, उदासीन है, शांत है, और जिसने समस्त सांसारिक संकल्पों का त्याग कर दिया है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है। यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । जो राग द्वेष नहीं करता, जो किसी वस्तु के लिये शोक अथवा उसकी कामना नहीं करता, जिसने शुभ और अशुभ का विचार छोड़ दिया है, वह भक्त मुझे प्रिय है। सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: । जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण और सुख-दुःख के प्रति मन मंज समान भाव रखता है और जिसने आसक्ति का त्याग कर दिया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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