भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 51

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ॥15॥[1]

जो दूसरे प्राणियों को उद्विग्न नहीं करता और जो स्वयं संसार से उद्विग्न नहीं होता, जो सहर्ष, क्रोध और भय के उद्वेगों से मुक्त है, वह मुझे प्यारा है।

अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ: ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ॥16॥[2]

जो इच्छा रहित है, पवित्र है, दक्ष है, उदासीन है, शांत है, और जिसने समस्त सांसारिक संकल्पों का त्याग कर दिया है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ॥17॥[3]

जो राग द्वेष नहीं करता, जो किसी वस्तु के लिये शोक अथवा उसकी कामना नहीं करता, जिसने शुभ और अशुभ का विचार छोड़ दिया है, वह भक्त मुझे प्रिय है।

सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: संग्ङविवर्जित: ॥18॥[4]

जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण और सुख-दुःख के प्रति मन मंज समान भाव रखता है और जिसने आसक्ति का त्याग कर दिया है-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 12-15
  2. दोहा नं0 12-16
  3. दोहा नं0 12-17
  4. दोहा नं0 12-18

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