भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 50

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

यतो यतो निश्चरति मनश्चज्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥26॥[1]

जब-जब चंचल और अस्थिर मन भागने का प्रयत्न करे, तब-तब वह उसे रोककर नियम में लाये और आत्मा में स्थित करे।

प्रशान्तमनसं ह्रोनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥27॥[2]

जिस योगी ने अपने अन्तस् की व्याकुलता मिटा दी है, जिसका मन शान्त हो गया है, जिसने इस प्रकार शुद्ध होकर सच्ची आत्म प्राप्ति कर ली है तथा जो ब्रह्ममय हो गया है, वह अवश्य उत्तम सुख प्राप्त करता है।

बारहवें अध्याय के निम्नलिखित श्लोकों में आदर्श मानसिक समत्व प्राप्त करने वाले मनुष्य का वर्णन हैः

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ॥13॥[3]

जो द्वेषरहित, प्राणीमात्र का मित्र, दयावान, ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव से रहित हो सुख-दुख में समान और सदा क्षमावान है-

संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यार्पितमनोबुद्धियों मद्भक्त: स मे प्रिय: ॥14॥[4]

जो सदा संतोषी, आत्मयुक्त, इन्द्रियनिग्रही और दृढ़ निश्चयी है और जिसने अपने मन और बुद्धि को मुझे समर्पित कर दिया है, वह मेरा भक्त है और मुझे प्रिय है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 6-26
  2. दोहा नं0 6-27
  3. दोहा नं0 6-13
  4. दोहा नं0 12-14

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