भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 48

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ध्यान

तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥[1]

वहां बैठकर मन को एकाग्र करके, विचारों तथा इन्द्रिय कर्मों का संयमन करके उसे आत्मशुद्धि के लिये ध्यान करना चाहिए।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: ।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥[2]

धड़, गर्दन और शिर एक सीध में अचल रखकर, दृष्टि को नसिकाग्र पर जमाकर, इधर-उधर न देखता हुआ-

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्माचारिव्रते स्थित: ।
मन: संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर: ॥14॥[3]

आन्तरिक शान्ति के साथ, निर्भय, ब्रह्मचर्यव्रत में दृढ़, मन पर भलीभांति शासन और मेरा चिन्तन करता हुआ वह युक्त होकर बैठे और मुझे प्राप्त करने के प्रयत्न में निमग्न हो।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥[4]

योग उसके लिये नहीं है, जो बहुत खाता है और न उसके लिये ही है, जो पूरी तरह उपवास करता है। वह बहुत सोने वाले या बहुत जागने वाले के लिये भी नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 6-12
  2. दोहा नं0 6-13
  3. दोहा नं0 6-14
  4. दोहा नं0 6-16

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