भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यानतत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: । वहां बैठकर मन को एकाग्र करके, विचारों तथा इन्द्रिय कर्मों का संयमन करके उसे आत्मशुद्धि के लिये ध्यान करना चाहिए। समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर: । धड़, गर्दन और शिर एक सीध में अचल रखकर, दृष्टि को नसिकाग्र पर जमाकर, इधर-उधर न देखता हुआ- प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्माचारिव्रते स्थित: । आन्तरिक शान्ति के साथ, निर्भय, ब्रह्मचर्यव्रत में दृढ़, मन पर भलीभांति शासन और मेरा चिन्तन करता हुआ वह युक्त होकर बैठे और मुझे प्राप्त करने के प्रयत्न में निमग्न हो। नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत: । योग उसके लिये नहीं है, जो बहुत खाता है और न उसके लिये ही है, जो पूरी तरह उपवास करता है। वह बहुत सोने वाले या बहुत जागने वाले के लिये भी नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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