भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ध्यान(अध्याय 2-श्लोक 14,15,38। अध्याय 5-श्लोक 22,24,26,28। अध्याय 6-श्लोक 3-7, 10-14, 16,17,19,24-27। अध्याय 12-श्लोक 13-10। अध्याय 14-श्लोक 22-25)। साधारण कार्यों में निःस्वार्थता का अभ्यास करने के बाद, मुमुक्षु सुख और दुःख के प्रति उपेक्षा की ओर अग्रसर हो सकता है। किसी प्रयत्न में सफलता अथवा असफलता से मन विचलित नहीं होना चाहिये। सुख और दुःख को स्वभाव से ही एक-दूसरे का पूरक मानकर और अस्थायी समझकर समत्व भाव से स्वीकार करना चाहिए। ये दोनों सापेक्षता के सार्वलौकिक नियम के अंग हैं और इनसे बचा नहीं जा सकता। ये ‘जड़ प्रकृति के संसर्ग’ से उत्पन्न होते हैं। आत्मा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:। भौतिक संसर्ग सर्दी और गर्मी, सुख और दुःख उत्पन्न करता है। ये संवेदनाएं अनित्य हैं- आती हैं और चली जाती हैं। इनमें वास्तविकता नहीं होती। इन्हें तू अविचलित भाव से सह। यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ । जो पुरुष इनसे विचलित नहीं होता, जो धीर है और सुख तथा दुःख में सम रहता है, वह अमरत्व के योग्य बनता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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