भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 40

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

Prev.png

मनोनिग्रह का अभ्यास

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥67॥[1]

भटकती हुई इन्द्रियों के पीछे दोड़ने वाला मन मनुष्य की बुद्धि को अपने साथ खींच ले जाता है, जैसे तूफान समुद्र में जहाज को खींच ले जाता है।

अर्जुन ने पूछा

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष: ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित: ॥36॥[2]

यद्यपि मनुष्य पाप करना नहीं चाहता, फिर भी वह बलात्कार के वशीभूत हुआ-सा किसी प्रेरणा से पाप करता है?

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव: ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥37॥[3]

श्री भगवान ने कहाः

वह काम है, क्रोध है। वह रजोगुण से उत्पन्न होता है। उसका पेट ही नहीं भरता। वह महापापी है। उसे इस लोक में अपना शत्रु समझो।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 2-67
  2. दोहा नं0 3-36
  3. दोहा नं0 3-37

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य
क्रमांक नाम पृष्ठ संख्या

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः