भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 26

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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विहित कर्म

वेदों में यज्ञ का विधान है; किन्तु गीता में साहसपूर्ण तथापि सौम्य व्याख्या-क्रम द्वारा यह विचार विकसित किया गया है कि यज्ञ का तत्व कर्मकाण्ड नहीं वरन् स्वार्थ-कामना का त्याग है। गीता बताती है कि वैदिक शिक्षा की सच्ची व्याख्या के अनुसार यज्ञों के अनेक स्वरूप हो सकते हैं। सब यज्ञों में कर्म की आवश्यकता होती है। इस कारण से भी कर्म का त्याग नहीं किया जाना चाहिये; उसे केवल कामनाओं के बन्धन से मुक्त करके यज्ञ का रूप दिया जाना चाहिए। इस प्रकार यज्ञ की व्याख्या विशद करके गीता में कहा गया हैः

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम ॥31॥[1]

यज्ञ से बचा हुआ हविष्य अमरत्व प्रदान करता है। उसे खाने वाले सनातन ब्रह्म को पाते हैं। यज्ञ न करने वाला इसी लोक में कुछ नहीं पाता, फिर परलोक की तो बात ही क्या?

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धितान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥[2]

इस प्रकार वेदों में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन हुआ है। इन सबको कर्म से उत्पन्न हुआ जान। इस प्रकार सबको जानकर तू मोक्ष पायेगा।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञ: परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥33॥[3]

अनेक प्रकार के द्रव्यों से किये जाने वाले यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि सब विहित कर्मों की पूर्ण सफलता सच्चे ज्ञान की प्राप्ति में ही निहित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 4-31
  2. दोहा नं0 4-32
  3. दोहा नं0 4-33

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