भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 22

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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ईश्वर और प्रकृति

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित: ॥4॥[1]

यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है, सब भूत मुझ में स्थित हैं, मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।

न च मत्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्यो ममाऽऽत्मा भूतभावन: ॥5॥[2]

तथापि, प्राणी मुझ में नहीं है-ऐसा भी कहा जा सकता है। मेरा योगबल तू देख। मैं सब भूतों का मूल और आधार होता हुआ भी उनमें स्थित नहीं हूँ।

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥8॥[3]

अपनी प्रकृति के द्वारा मैं भूत-समुदाय को बारंबार उत्पन्न करता हूँ और उसे प्रकृति पर अवलम्बित रखता हूँ।

मयाऽध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥[4]

मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है और जगत्-चक्र को घूमता रखती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोहा नं0 9-4
  2. दोहा नं0 9-5
  3. दोहा नं0 9-8
  4. दोहा नं0 9-10

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