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भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
ईश्वर और प्रकृतिमया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना । यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है, सब भूत मुझ में स्थित हैं, मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। न च मत्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् । तथापि, प्राणी मुझ में नहीं है-ऐसा भी कहा जा सकता है। मेरा योगबल तू देख। मैं सब भूतों का मूल और आधार होता हुआ भी उनमें स्थित नहीं हूँ। प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: । अपनी प्रकृति के द्वारा मैं भूत-समुदाय को बारंबार उत्पन्न करता हूँ और उसे प्रकृति पर अवलम्बित रखता हूँ। मयाऽध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् । मेरी अध्यक्षता में प्रकृति चराचर जगत् को उत्पन्न करती है और जगत्-चक्र को घूमता रखती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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