भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य
कर्मममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । मेरा ही अंश जीवलोक में सनातन आत्मा बनता है; वह प्रकृति में स्थिर पांच इन्द्रियों और उनका नियंत्रण करने वाले मन को अपनी ओर आकर्षित करता है। शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: । आत्मा जब किसी शरीर का स्वामित्व ग्रहण करता अथवा त्यागता है तब वह इन इन्द्रियों और मन को उसी तरह अपने साथ ले जाता है, जैसे वायु सुगंध को एक कुंज से दूसरे कुंज में ले जाता है । श्रोत्रं चक्षु: स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । वह कान, आंख, त्वचा, जीभ और नाक तथा मन का भी सहारा लेकर इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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