भगवद्गीता -राजगोपालाचार्य पृ. 11

भगवद्गीता -चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य

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कर्म

(अध्याय 15-श्लोक 7-9। अध्याय 13-श्लोक 19-21)

अब जिन श्लोकों का अध्ययन किया जायेगा, उनसे हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि जीवात्मा तथा परमात्मा और जीवात्मा तथा भौतिक शरीर के बीच क्या संबंध हैं यह कहा जा सकता है कि जिस तरह जीवात्मा शरीर के अन्दर रहकर उसे प्रकाशित करता है, उसी तरह परमात्मा जीवात्मा में व्याप्त रहता है और उसे प्रकाशित करता रहता है। हम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं कि जीवात्मा क्रमशः अनेक प्रकार के दृश्य रूप धारण करता है और संस्कारों के अनुसार मनुष्य, पक्षी, पशु और वनस्पति ‘बन’ जाता है। इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि परमात्मा भी एक ही समय में अनेक जीवात्माओं के रूप में परिणत हो जाता है। जीवात्मा को परमात्मा का अंश भी माना जा सकता है; किन्तु इस प्रकार अंश हो जाने से परमात्मा की पूर्णता पर कोई परिणाम नहीं होता। यदि जीवात्मा और परमात्मा के संबंध की और भी अधिक सूक्ष्म व्याख्या करनी हो तो हमें द्वैत, अद्वैत, और विशिष्टाद्वैत मतों के विद्वतापूर्ण तर्कों का अध्ययन करना होगा। भगवद्गीता में इस प्रश्न पर विचार नहीं किया गया; परन्तु वह, उपनिषदों के समान, इन सब मतों का अधिकारी ग्रन्थ अवश्य मानी जाती है। कर्म के सिद्धान्त को, जिससे जीवात्मा का नियंत्रण होता है, तीनों मत स्वीकार करते हैं।

आत्मा का निवास-स्थान शरीर है, जिसमें इन्द्रियों और मन का भी समावेश है। इस शरीर-रूपी गृह का निर्माण भौतिक जगत् से हुआ है और वही इसका आधार है। मृत्यु के समय, अथवा किसी एक शरीर से विलग होने पर, आत्मा अपने तब तक के कार्यों से विकसित चरित्र अथवा गुणों को अपने साथ ले जाता है, इन गुणों के ही आधार पर दूसरे शरीर का आरम्भ होता है। जिस प्रकार वायु कुंजों से सुगंधा ले जाता है, उसी प्रकार आत्मा गुणों को सूक्ष्म रूप में एक जीवन से दूसरे जीवन में ले जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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