विरह-पदावली -सूरदास
(240) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) ‘सखी! पपीहा फिर बोला, जिससे (मेरी) निद्रा टूट गयी (और नींद के टूट जाने से) चित्त में चिन्ता बढ़ गयी तथा श्यामसुन्दर का स्मरण हो आया। मैं श्रावण मास की मेघ-वर्षा में उठकर आँगन में आयी, (तो देखती हूँ) चारों ओर आकाश में बिजली चमक रही है, उससे मैं मन में बहुत डर गयी।’ (तभी) किसी ने मधुर स्वर में वंशी बजाकर मलार राग का अलाप छेड़ा, जिससे वह वियोगिनी गोपी व्याकुल हो गयी और पृथ्वी पर मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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