बहुरि न कबहूँ सखी मिलै हरि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग घनाश्री


बहुरि न कबहूँ सखी मिलै हरि।
कमल नैन के दरसन कारन, अपनो सो जतन रही बहुतै करि।।
जेइ जेइ पथिक जात मधुबन तन, तिनसौ बिथा कहति पाइनि परि।
काहुँ न प्रगट करी जदुपति सौं, दुसह दुरासा गई अवधि टरि।।
धीर न धरत प्रेम व्याकुल चित, लेत उसाँस नीर लोचन भरि।
'सूरदास' तन थकित भई अब, इहि वियोगसागर न सकति तरि।। 3295।।

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