बलदेव की तीर्थयात्रा

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 35वें अध्याय में संजय ने बलराम जी की तीर्थयात्रा का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

बलराम जी की तीर्थयात्रा का आरम्भ

जनमेजय ने कहा- ब्रह्मन! जब महाभारत युद्ध आरम्भ होने का समय निकट आ गया, उस समय युद्ध प्रारम्भ होने से पहले ही भगवान बलराम श्रीकृष्ण की सम्मति ले, अन्य वृष्णि वंशियों के साथ तीर्थ यात्रा के लिये चले गये और जाते समय यह कह गये कि ‘केशव! मैं न तो धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन की सहायता करुंगा और न पाण्डवों की ही’। विप्रवर! उन दिनों ऐसी बात कहकर जब क्षत्रिय संहारक बलराम जी चले गये, तब उनका पुनः आगमन कैसे हुआ, यह बताने की कृपा करें। साधुशिरोमणे! आप कथा कहने में कुशल हैं; अतः मुझे विस्तारपूर्वक बताइये कि बलराम जी कैसे वहाँ उपस्थित हुए और किस प्रकार उन्होंने युद्ध देखा?

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! जिन दिनों महामनस्वी पाण्डव उपप्लव्य नामक स्थान में छावनी डाल कर ठहरे हुए थे, उन्हीं दिनों की बात है। महाबाहो! पाण्डवों ने समस्त प्राणियों के हित के लिये सन्धि के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण को धृतराष्ट्र के पास भेजा। भगवान ने हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र से भेंट की और उनसे सबके लिये विशेष हितकारक एवं यथार्थ बातें कहीं। नरेश्वर! किंतु राजा धृतराष्ट्र ने भगवान का कहना नहीं माना। यह सब बात पहले यथार्थरूप से बतायी गयी हैं। महाबाहु पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण वहाँ संधि कराने में सफलता न मिलने पर पुनः उपप्लव्य में ही लौट आये। नरव्याघ्र! कार्य न होने पर धृतराष्ट्र से विदा ले वहाँ से लौटे हुए श्रीकृष्ण ने पाण्डवों से इस प्रकार कहा- ‘कौरव काल के अधीन हो रहे हैं, इसलिये वे मेरा कहना नहीं मानते हैं। पाण्डवों! अब तुम लोग मेरे साथ पुष्य नक्षत्र में युद्ध के लिये निकल पड़ो'। इसके बाद जब सेना का बटवारा होने लगा, तब बलवानों में श्रेष्ठ महामना बलदेव जी ने अपने भाई श्रीकृष्ण से कहा- ‘महाबाहु मधुसूदन! उन कौरवों की भी सहायता करना।’ परंतु श्रीकृष्ण ने उस समय उनकी यह बात नहीं मानी। इससे मन ही मन कुपित और खिन्न होकर महायशस्वी यदुनन्दन हलधर सरस्वती के तट पर तीर्थ यात्रा के लिये चल दिये। इसके बाद शत्रुओं का दमन करने वाले कृतवर्मा ने सम्पूर्ण यादवों के साथ अनुराधा नक्षत्र में दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया। सात्यकि सहित भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों का पक्ष लिया।[1]

बलराम जी की तीर्थयात्रा का वर्णन

रोहिणीनन्दन शूरवीर बलराम जी के चले जाने पर मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को आगे करके पुष्यनक्षत्र में कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। यात्रा करते हुए बलराम जी ने स्वयं मार्ग में ही रहकर अपने सेवकों से कहा- ‘तुम लोग शीघ्र ही द्वारका जाकर वहाँ से तीर्थ यात्रा में काम आने वाली सब सामग्री, समस्त आवश्यक उपकरण, अग्निहोत्र की अग्नि तथा पुरोहितों को ले आओ। सोना, चांदी, दूध देने वाली गायें, वस्त्र, घोड़े, हाथी, रथ, गदहा और ऊंट आदि वाहन एवं तीर्थोपयोगी सब सामान शीघ्र ले आओ। शीघ्रगामी सेवकों! तुम सरस्वती के स्त्रोत की ओ चलो और सैकड़ों श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा ऋत्विजों को ले आओ’। राजन! महाबली बलदेव जी ने सेवकों को ऐसी आज्ञा देकर उस समय कुरुक्षेत्र में ही तीर्थ यात्रा आरम्भ कर दी। भरतश्रेष्ठ! वे सरस्वती के स्त्रोत की ओर चलकर उसके दोनों तटों पर गये। उनके साथ ऋत्विज, सुहृद, अन्यान्य श्रेष्ठ ब्राह्मण, रथ, हाथी, घोड़े और सेवक भी थे। बैल, गदहा और ऊंटों से जुते हुए बहुसंख्यक रथों से बलराम जी घिरे हुए थे। राजन! उस समय उन्होंने देश-देश में थके-मांदे रोगी, बालक और वृद्धों का सत्कार करने के लिये नाना प्रकार की देने योग्य वस्तुएं प्रचुर मात्रा में तैयार करा रखी थीं।[1]

भारत! विभिन्न देशों में लोग जिन वस्तुओं की इच्छा रखते थे, उन्हें वे ही दी जाती थीं। भूखों को भोजन कराने के लिये सर्वत्र अन्न का प्रबन्ध किया गया था। नरेश्वर! जिस किसी देश में जो-जो ब्राह्मण जब कभी भोजन की इच्छा प्रकट करता, बलराम जी के सेवक उसे वहीं तत्काल खाने-पीने की वस्तुएं अर्पित करते थे। राजन! रोहिणीकुमार बलराम जी की आज्ञा से उनके सेवक विभिन्न तीर्थ स्थानों में खाने-पीने की वस्तुओं के ढेर लगाये रखते थे। सुख चाहने वाले ब्राह्मणों के सत्कार के लिये बहुमूल्य वस्त्र, पलंग और बिछौने तैयार रखे जाते थे। भारत! जो ब्राह्मण जहाँ भी सोता या जागता था, वहां-वहाँ उसके लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सदा प्रस्तुत दिखायी देती थीं। भरतश्रेष्ठ! इस यात्रा में सब लोग सुखपूर्वक चलते और विश्राम करते थे। यात्री की इच्छा हो तो उसे सवारियां दी जाती थीं, प्यासे को पानी और भूखे को स्वादिष्ठ अन्न दिये जाते थे। साथ ही वहाँ बलराम जी के सेवक वस्त्र और आभूषण भी भेंट करते थे। वीर नरेश! वहाँ यात्रा करने वाले सब लोगों को वह मार्ग स्वर्ग के समान सुखदायक प्रतीत होता था। उस मार्ग में सदा आनन्द रहता, स्वादिष्ठ भोजन मिलता और शुभ की ही प्राप्ति होती थी। उस पथ पर खरीदने-बेचने की वस्तुओं का बाज़ार भी साथ साथ चलता था, जिसमें नाना प्रकार के सैकड़ों मनुष्य भरे रहते थे। वह हाट भाँति-भाँति के वृक्षों और लताओं से सुशोभित तथा अनेकानेक रत्नों से विभूषित दिखायी देता था।

राजन! यदुकुल के प्रमुख वीर हलधारी महात्मा बलराम नियमपूर्वक रहकर प्रसन्नता के साथ पुण्यतीर्थों में ब्राह्मणों को धन और यज्ञ की दक्षिणाएं देते थे। बलराम ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को सहस्रों दूध देने वाली गौएं दान की, जिन्हें सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित करके उनके सींगों में सोने के पत्र जड़े गये थे। साथ ही उन्होंने अनेक देशों में उत्पन्न घोड़े, रथ और सुन्दर वेश-भूषा वाले दास भी ब्राह्मणों की सेवा में अर्पित किये। इतना ही नहीं, बलराम ने भाँति-भाँति के रत्न, मोती, मणि, मूंगा, उत्तम सुवर्ण, विशुद्ध चांदी तथा लोहे और तांबे के बर्तन भी बांटे थे। इस प्रकार उदार वृत्ति वाले अनुपम प्रभावशाली महात्मा बलराम ने सरस्वती के श्रेष्ठ तीर्थों में बहुत धन दान किया और क्रमशः यात्रा करते हुए वे कुरुक्षेत्र में आये।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 1-24
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 35 श्लोक 25-42

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