विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) देखो, ये बादल तो वर्षा करने आ गये, पर हे नन्दनन्दन! (बादल तो) अपने लौटने की अवधि समझकर गर्जना करते हुए आकाश में छा गये हैं (पर तुम नहीं आये)। सखी! कहा जाता है कि ये (मेघ) देवलोक में रहते हैं और सदा दूसरे के (इन्द्र के) सेवक हैं; किंतु वे भी चातक और कोयल की पीड़ा समझकर वहाँ से दौड़ आये हैं। उन्होंने (यहाँ आकर) वृक्षों को हरा कर दिया, (जिससे) लताएँ हर्षित होकर उन (वृक्षों से) मिल गयीं और मरते हुए मेढकों को जीवित कर दिया तथा पक्षियों ने भी अपने इच्छानुसार तिनके एकत्र कर-करके सघन घोंसले सजा (बना) लिये। सखी! श्यामसुन्दर ने अपनी भूल न समझकर ही मथुरा में उतने (अधिक) दिन लगा दिये। हमारे स्वामी (तो) रसिकशिरोमणि हैं, फिर भी मथुरा में रहकर उन्होंने हमें भुला दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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