बरसत हैं घन गिरि के ऊपर। देखि-देखि ब्रज लोग करत डर।।
ब्रजबासी सब कान्ह बतावत। महाप्रलय-जल गिरिहिं ढहावत।।
झरहरात झरपत झर लावत। गिरिहिं धोइ ब्रज ऊपर आवत।।
बिकल देखि गोकुल के बासी। दरस दियौ सबकौं अबिनासी।।
अबिनासी के दरसन पाए। तब सब मन परतीति बढ़ाए।।
नंद जसोदा सुत-हित जानैं। और सबै मुख अस्तुति गानैं।।
बार-बार यह कहि-कहि भाखै। अब सब ब्रज कौं येई राखै।।
बरसत गिरि झरपत ब्रज ऊपर। सो जल जहँ तहँ पूरत भू पर।।
सूरदास प्रभु राखि लेहु अब। जैसैं राखे अघा-बदन तब।।936।।