बरजी मै काहू की नाहिं रहूं -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विरोध

राग कामोद


बरजी मै काहू की नाहिं रहूँ ।। टेक ।।
सुनौरी सखी तुम चेतन होइकै, मन की बात कहूँ ।
साध सँगति करि हरि सुख लीजै, जगसूँ दूरि रहूँ ।
तन धन मेरे सब ही जावो, भलि मेरो सीस लहूँ ।
मन मेरो लागो सुमिरण सेती,सब का मैं बोल सहूँ ।
मीराँ के प्रभु हरि अविनासी, सतगुर सरण गहूँ ।।31।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बरजी = रोकी हुई, मना करने पर। काहू की = किसी की भी। चेतन = सावधान। भलि = चाहे। मेरो = अपना। लहूँ = कटा दूँ। सुमरण सेती = भगवान् के स्मरण से। बोल = कटु वचन। गहूँ = पकड़ती हूँ।

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