बनी रूप रँग राधिका, तातै अधिक बने ब्रजनाथ।
ललिता अरु चंद्रावलि, मिलि बन्यौ छबीलौ साथ।।
ताल पखावज बाजही, सँग डफ मुरली की घोर।
नंदद्वार औसर रच्यौ, दोउ राजत नवलकिसोर।।
एक कौध ब्रज सुंदरी, इक कौध गुवाल गोविंद।
सरस परस्पर गावही, दै गारि नारि बहु बृंद।।
आवहु री हम दुरि रहै, बलभद्र कृष्न गहिं देहि।
लोचन उनके आजही, अरु अधरनि कौ रस लेहि।।
सीला नाम गुवालिनी, तिहिं गहे कृष्न धपि धाइ।
उपरैना मुरली लई, मुख निरखि हरषि मुसुकाइ।।
गहे अचानक राधिका, तब रही कंठ भुज लाइ।
मन के सब सुख भोगए, जब परसे जादवराइ।।
कोटि कलस भरि बारुनी, दई बहुत मिठाई पान।
राधा माधौ रस रह्यौ, सब चले जमुनजल न्हान।।
द्वितिया सकल समाज सौं, पट बैठे आनंदकंद।
दान देत ब्रज सुंदरी नगभूषन नवनिधि नंद।।
बन बीथिनि भरु पुर गलिनि, उमँग्यौ रंग अपार।
'सूर' सु नभ सुर थकित, रहे निरखत प्रान अधार।।2909।।