बच रहे थे दो -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग बसंत - तीन ताल


बच रहे थे दो, नहीं जग-भान था।
लोक-सात्ता का मिटा सब ज्ञान था॥
नहीं कुछ कर्तव्य मन में शेष था।
नहीं तिलभर जगत्‌-स्मृतिका लेश था॥
मिट गया सब भोगका अस्तित्व था।
कर्म था न कहीं तनिक कर्तृत्व था॥
मैं तथा मेरे हृदय-धन श्याम थे।
खेलते रहते सदा अविराम थे॥
थी नहीं मन में कहीं कुछ वासना।
थी नहीं कुछ भी किसी की त्रासना॥
अखिल प्राणि-पदार्थ थे मन से हटे।
सभी ममता-राग के बन्धन कटे॥
श्याम शेषी, मैं उन्हीं की शेष थी।
एक यह ’प्यारी अहंता’ शेष थी॥
एक ’प्रिय’ हैं, ’प्रिया’ उनकी एक मैं।
एक ’वे’ बस, दूसरी हूँ एक ’मैं’॥
नहीं दोसे भिन्न कुछ भी था कहीं।
सब सिमट मिटकर समाया था यहीं॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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