फिरि फिरि ऐसोई है करत -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग




फिरि फिरि ऐसोई है करत।
जैसैं प्रेम पतंग दीप सौं, पावक हू न डरत।
भव-दुख-कूप ज्ञान करि दीपक, देखत प्रगट परत।
काल-ब्‍याल, रज-तम-बिष-ज्‍वाला कत जड़ जंतु जरत।
अविहित बाद-बिवाद सकल मत इन लगि भेष धरत।
इहिं विधि भ्रमत सकल निसि-दिन गत, कछू न काज सरत।
अगम सिंधु जतननि सजि नौका, हठि क्रम-भार भरत।
सूरदास-व्रत यहै, कृष्‍ण भजि, भव-जलनिधि उतरत।।55।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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