फिरि करि नंद न उत्तर दीन्हौ ।
रोम रोम भरि गयौ वचन सुनि, मनहु चित्र लिखि कीन्हौ ।।
यह तौ परंपरा चलि आई, सुख दुख लाभऽरु हानि ।
हम पर बबा मबा किए रहियौ, सुत अपनौ जिय नानि ।।
को जलपै काके पन लागै, निरखि नदन सिर नायौ ।
दुःख समूह हृदय परिपूरन, चलत कठ भरि आयौ ।।
अध-अध-पद भुव भई कोटि गिरि जौ लगि गोकुल पैठौ ।
‘सूरदास’ अँस कठिन कुलिस तै, अजहुँ रहत तनु बैठौ ।। 3125 ।।