फिरत लोग जहँ तहँ बितताने। को हैं अपने कौन बिराने।।
ग्वाल गए जे धेनु चरावन। तिनहिं परयौ बन माँझ परावन।।
गाइ बच्छ कोऊ न सँभारै। जिय की सबकौं परी खँभारैं।।
भागे आवत ब्रजही तन कौं। बिपति परी अति बन ग्वालनि कौं।।
अंध धुंध मग कहूँ न सूझैं। ब्रज भीतर ब्रज ही कौं बूझैं।।
जैसै तैसै ब्रज पहिचानत। अटकरहीं अटकर करि आनत।।
खोजत फिरैं आपने घर कौं। कहा भयौ इहि घोष-सहर कौं।।
रोवत डोलैं घरहिं न पावैं। घर द्वारे घर कौं बिसरावैं।।
सूर स्याम सुरपति बिसरायौ। गिरि के पूजैं यह फल पायौ।।932।।