फागु रंग करि हरि रस राख्यौ 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
अक्रूर-ब्रज-आगमन


त्रिभुवन मैं तुम सरि को ऐसौ। देख्यौ नंदसुवन ब्रज जैसौ।।
करत कहा रजधानी ऐसी। यह तुमकौ उपजी कहौ कैसी।।
दिन दिन भयौ प्रबल वह भारी। हम सब हित की कहै तुम्हारी।।
तब गर्बित नृप बोले बानी। कहा बात नारद तुम जानी।।
कोटि दनुज मो सरि मो पासा। जिनकौ देखि तरनि तनु त्रासा।।
कोटि कोटि तिनके सँग जोधा। को जीवै तिनके तनु कोधा।।
मल्लनि कौ बल कहा बखानौ। जिनके देखत काल डरानौ।।
कोटि धनुर्धर सतत हारै। बचै कौन तिनके जु हँकारै।।
एक कुबलया त्रिभुवन गामी। ऐसे और कितक है नामी।।
ग्वाल सुतनि की कहा चलावहु। यह बानी कहि कहा सुनावहु।।
प्रजा लोग ब्रज के सब मेरे। सेवा करत सदा रहै मेरे।।
ताते सकुचत हौ उहिं काजा। बातक सुनत होइ जिय लाजा।।
भली करी यह बात सुनाई। सहज बुलाइ लेउँ दोउ भाई।।
और सुनौ नारद मुनि मोसौ। स्रवननि लागि कहौ कछु गोसौ।।
कितिक बात बलराम कन्हाई। मो देखत अति काल डराई।।
आजु काल्हि अब उनहिं बुलाऊँ। कहि पठवौ ब्रज सहित मँगाऊँ।।
और प्रजा ब्रज आनि बसाऊँ। अपने जिय की खुटक मिटाऊँ।।

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