प्रह्लाद | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- प्रह्लाद (बहुविकल्पी) |
प्रह्लाद पुराणों में वर्णित हिरण्यकशिपु और कयाधु दानवी के पुत्र थे।[1] दैत्यराज का पुत्र होते हुए भी वे बचपन से ही भगवदवक्ता थे।[2] दत्तात्रेय, शंड तथा मर्क उनके शिक्षक थे। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को हर प्रकार से ईश्वर भक्ति से विचलित करने के लिए अनेक उपाय किए तथा उनको नाना प्रकार की यातनाएँ दीं, किंतु वे अपने पथ पर दृढ़ रहे। अंत में प्रह्लाद की रक्षा करने हेतु भगवान विष्णु ने 'नृसिंह अवतार' लिया और प्रह्लाद की रक्षा की।[3] 'आयुष्मान', 'शिवि', 'वाष्कल' और 'विरोचन' इनके पुत्र[4] तथा बलि पौत्र था। यह ईश्वर भक्ति के कारण दैत्यों और दानवों के अधिपति हो गये थे।[5]
विषय सूची
जन्म
जब भगवान वाराह ने पृथ्वी को रसातल से लाते समय हिरण्याक्ष को मार दिया, तब उसका बड़ा भाई दैत्यराज हिरण्यकशिपु बहुत ही क्रोधित हुआ। उसने निश्चय किया कि ‘मैं अपने भाई का बदला लेकर रहूँगा।’ अपने को अजेय एवं अमर बनाने के लिये हिमालय पर जाकर वह तप करने लगा। उसने सहस्त्रों वर्षों तक उग्र तप करके ब्रह्मा को संतुष्ट किया। ब्रह्मा जी ने उसे वरदान दिया कि ‘तुम किसी अस्त्र-शस्त्र से, ब्रह्मा जी द्वारा निर्मित किसी प्राणी से, रात में, दिन में, जमीन पर, आकाश में- कहीं मारे नहीं जाओगे।’ जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने चला गया था, तभी देवताओं ने दैत्यों की राजधानी पर आक्रमण किया। कोई नायक न होने से दैत्य हारकर दिशाओं में भाग गये। देवताओं ने दैत्यों की राजधानी को लूट लिया। देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधू को बंदी बना लिया और स्वर्ग को ले चले। रास्ते में देवर्षि नारद मिल गये। उन्होंने इन्द्र को रोका कि तुम दैत्यराज की पतिव्रता पत्नी को मत ले जाओ। इन्द्र ने बताया कि कयाधू गर्भवती है। उसके जब सन्तान हो जायगी, तब उसके पुत्र का वध करके उसे छोड़ दिया जायगा। देवर्षि ने कहा- "इसके गर्भ में भगवान का परम भक्त है। उससे देवताओं को भय नहीं है। उस भागवत को मारा नहीं जा सकता।"
इन्द्र ने देवर्षि की बात मान ली। वे कयाधू के गर्भ में भगवान का भक्त है’, यह सुनकर उसकी परिक्रमा करके अपने लोक को चले गये। जब कयाधू देवराज इन्द्र के बन्धन से छोड़ दी गयी, तब वह देवर्षि नारद के ही आश्रम में आकर रहने लगी। उसके पति जब तक तपस्या से न लौटें, उसके लिये दूसरा निरापद आश्रय नहीं था। देवर्षि भी उसे पुत्री की भाँति मानते थे और बराबर गर्भस्थ बालक को लक्ष्य करके उसे भगवद् भक्ति का उपदेश किया करते थे। गर्भस्थ बालक प्रह्लाद ने उन उपदेशों को ग्रहण कर लिया। भगवान की कृपा से वह उपदेश उन्हें फिर भूला नहीं। समय आने पर कयाधू ने प्रह्लाद को जन्म दिया।
शिक्षा
जब वरदान पाकर हिरण्यकशिपु लौटा, तब उसने सभी देवतओं को जीत लिया। सभी लोकपालों को जीतकर वह उनके पद का स्वयं उपभोग करने लगा। उसे भगवान से घोर शत्रुता थी, अत: ऋषियों को वह कष्ट देने लगा। यज्ञ उसने बंद करा दिये। धर्म का वह घोर विरोधी हो गया। उसके गुरु शुक्राचार्य उस समय तप करने चले गये थे। अपने पुत्र प्रह्लाद को उसने अपने गुरुपुत्र शण्ड तथा अमर्क के पास शिक्षा पाने भेज दिया। प्रह्लाद उस समय पांच ही वर्ष के थे। एक बार प्रह्लाद घर आये। माता ने उनको वस्त्राभरणों से सजाया। पिता के पास जाकर उन्होंने प्रणाम किया। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को गोद में बैठा लिया। स्नेहपूर्वक उनसे उसने पूछा- "बेटा! तुमने जो कुछ पढ़ा है, उसमें से कोई अच्छी बात मुझे भी सुनाओ तो।" बालक प्रह्लाद ने कहा- "पिताजी! संसार के सभी प्राणी असत् संसार में आसक्त होकर सद उद्विग्न रहते हैं। मैं तो सबके लिये यही अच्छा मानता हूँ कि अपना पतन कराने वाले जलहीन अन्धकूप के समान घरों को छोड़कर मनुष्य वन में जाकर श्रीहरि का आश्रय लें।"
हिरण्यकशिपु जोर से हंस पड़ा। उसे लगा कि किसी शत्रु ने मेरे बच्चे को बहका दिया है। उसने गुरुपुत्रों को सावधान किया कि ‘वे प्रह्लाद को सुधारें। उसे दैत्यकुल के उपयुक्त अर्थ, धर्म, काम का उपदेश दें।’ गुरुपुत्र प्रह्लाद को अपने यहाँ ले आये। उन्होंने प्रह्लाद से पूछा कि ‘तुमको यह उल्टा ज्ञान किसने दिया है?’ प्रह्लाद ने कहा- "गुरुदेव! यह मैं हूँ और यह दूसरा है, यह तो अज्ञान है। भगवान की इस माया से ही जीव मोहित हो रहे हैं। वे दयामय जिस पर दया करते हैं, उसी का चित्त उनमें लगता है। मेरा चित्त तो उनकी अनन्त कृपा से ही उन परम पुरुष की ओर सहज खिंच गया है।" गुरुपुत्रों ने बहुत डांटा-धमकाया और वे प्रह्लाद को अर्थशास्त्र, दण्डनीति, राजनीति आदि की शिक्षा देने लगे। गुरु द्वारा पढ़ायी विद्या को प्रह्लाद ध्यानपूर्वक सीखते थे। वे गुरु का कभी अपमान नहीं करते थे और न उन्होंने विद्या का ही तिरस्कार किया, पर उस विद्या के प्रति उनके मन में कभी आस्था नहीं हुई।
गुरुपुत्रों ने जब उन्हें भली-भाँति सुशिक्षित समझ लिया, तब दैत्यराज के पास ले गये। हिरण्यकशिपु ने अपने विनयी पुत्र को गोद में बैठाकर फिर पूछा- "बताओ, बेटा! तुम अपनी समझ से उत्तम ज्ञान क्या मानते हो?" प्रह्लाद ने कहा- "भगवान के गुण एवं चरित्रों का श्रवण, उनकी लीलाओं तथा नामों का कीर्तन, उन मंगलमय का स्मरण, उनके श्रीचरणों की सेवा, उन परम प्रभु की पूजा, उनकी वन्दना, उनके प्रति दास्यभाव, उनसे सख्य, उन्हें आत्मनिवेदन- यह नवधा भक्ति है। इस नवधा भक्ति के आश्रय से भगवान में चित्त लगाना ही समस्त अध्ययन का सर्वोत्तम फल मैं मानता हूँ।" हिरण्यकशिपु तो क्रोध से लाल-पीला हो गया। उसने गोद से प्रह्लाद को धक्का देकर भूमि पर पटक दिया। गुरुपुत्रों को उसने डांटा कि तुम लोगों ने मेरे पुत्र को उल्टी शिक्षा देकर शत्रु का व्यवहार किया है। गुरुपुत्रों ने बताया कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं है। प्रह्लाद पिता द्वारा तिरस्कृत होकर भी शान्त खड़े थे। उन्हें कोई क्षोभ नहीं था। उन्होंने कहा- "पिताजी! आप रुष्ट न हों। गुरुपुत्रों का कोई दोष नहीं है। जो लोग विषयासक्त हैं, घर के, परिवार के मोह में जिनकी बुद्धि बंधी है, वे तो उगले हुए को खाने के समान, नरक में ले जाने वाले विषयों के, जो बार-बार भोगे गये हैं, सेवन करने में लगे हैं। उनकी बुद्धि अपने-आप या दूसरे की प्रेरणा से भी भगवान में नहीं लगती। जैसे एक अन्धा दूसरे अन्धे को मार्ग नहीं बता सकता, वैसे ही जो सांसारिक सुखों को ही परम पुरुषार्थ माने हुए हैं, वे भगवान के स्वरूप को नहीं जानते। वे भला, किसी को क्या मार्ग दिखा सकते हैं। सम्पूर्ण क्लेशों, सब अनर्थों का नाश तो तभी होता है, जब बुद्धि भगवान के श्रीचरणों में लगे। परन्तु जब तक महापुरुषों की चरण-रज मस्तक पर धारण न की जाय, तब तक बुद्धि निर्मल होकर भगवान में लगती नहीं।"
पिता द्वारा हत्या का आदेश
नन्हा-सा बालक त्रिभुवनविजयी दैत्यराज के सामने निर्भय होकर इस प्रकार उनके शत्रु का पक्ष ले, यह असह्य हो गया दैत्यराज को। चिल्लाकर हिरण्यकशिपु ने अपने क्रूर सभासद दैत्यों को आज्ञा दी- "जाओ, तुरंत इस दुष्ट को मार डालो।" असुर भाले, त्रिशूल, तलवार आदि लेकर एक साथ ‘मारो! काट डालो।’ चिल्लाते हुए पांच वर्ष के बालक पर टूट पडे। पर प्रह्लाद निर्भय खड़े रहे। उन्हें तो सर्वत्र अपने दयामय प्रभु ही दिखायी पड़ते थे। डरने का कोई कारण ही नहीं जान पड़ा उन्हें। असुरों ने पूरे बल से अपने अस्त्र-शस्त्र बार-बार चलाये, किंतु प्रह्लाद को कोई क्लेश नहीं हुआ। उनको तनिक भी चोट नहीं लगी। उनके शरीर से छूते ही वे हथियार टुकडे-टुकडे हो जाते थे।
अब हिरण्यकशिपु को आश्चर्य हुआ। उसने प्रह्लाद को मारने का निश्चय कर लिया। अनेक उपाय वह करने लगा। मतवाले हाथी के सामने हाथ-पैर बांधकर प्रह्लाद डाल दिये गये, पर हाथी ने उन्हें सूंड से उठाकर मस्तक पर बैठा लिया। कोठरी में उन्हें बंद किया गया और वहाँ भयंकर सर्प छोडे गये, पर वे सर्प प्रह्लाद के पास पहुँचकर केंचुओं के समान सीधे हो गये। जंगली सिंह जब वहाँ छोड़ा गया, तब वह पालतू कुत्ते के समान पूंछ हिलाकर प्रह्लाद के पास जा बैठा। प्रह्लाद को भोजन में उग्र विष दिया गया, किंतु उससे उन पर कोई प्रभाव न हुआ, विष जैसे उनके उदर में जाकर अमृत हो गया हो। अनेक दिनों तक भोजन तो क्या, जल की एक बूँद तक प्रह्लाद को नहीं दी गयी, पर शिथिल होने के बदले वे ज्यों-के-त्यों बने रहे। उनका तेज बढ़ता ही जाता था। उन्हें पर्वत से गिराया गया और पत्थर बांधकर समुद्र में फैंका गया। दोनों बार वे सकुशल भगवन नाम का कीर्तन करते नगर में लौट आये।
बड़ा भारी लकड़ियों का पर्वत एकत्र किया गया। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका ने तप करके एक वस्त्र पाया था। वह वस्त्र अग्नि में जलता नहीं था। होलिका वह वस्त्र ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में लेकर उस लकड़ियों के ढेर पर बैठ गयी। उस ढेर में अग्नि लगा दी गयी। होलिका तो भस्म हो गयी। पता नहीं, कैसे उसका वस्त्र उड़ गया उसके देह से, किंतु प्रह्लाद तो अग्नि में बैठे हुए पिता को समझा रहे थे- "पिताजी! भगवान से द्वेष करना छोड़ दें। 'श्रीहरि' नाम का यह प्रभाव तो देखें कि यह अग्नि मुझे अत्यन्त शीतल लग रही है। आप भी 'श्रीहरि' नाम लें और संसार के समस्त तापों से इसी प्रकार निर्भय हो जायं।" दैत्यराज हिरण्यकशिपु के अनेक दैत्यों ने माया के प्रयोग किये, किंतु माया तो प्रह्लाद के सम्मुख टिकती ही नहीं थी। उनके नेत्र उठाते ही माया के दृश्य अपने-आप नष्ट हो जाते। गुरुपुत्र शण्ड तथा अमर्क ने अभिचार के द्वारा प्रह्लाद को मारने के लिये कृत्या उत्पन्न की, परंतु उस कृत्या ने गुरुपुत्रों को ही उल्टे मार दिया। प्रह्लाद ने भगवान की प्रार्थना करके गुरुपुत्रों को फिर से जीवित किया। यों मारने की चेष्टा करने वालों को उनके मरने पर जिला दिया। इस प्रकार दैत्यराज ने अनेकों उपाय कर लिये प्रह्लाद को मारने के, पर कोई सफल न हुआ। जिसका चित्त भगवान में लगा है, जो सर्वत्र अपने दयामय प्रभु को प्रत्यक्ष देखता है, भला उसकी तनिक-सी भी हानि वे सर्वसमर्थ प्रभु कैसे होने दे सकते हैं।
गुरुगृह में प्रह्लाद
अब दैत्यराज को भय लगा। वे सोचने लगे कि ‘कहीं यह नन्हा-सा बालक मेरी मृत्यु का कारण न हो जाय।’ गुरुपुत्रों के कहने से वरुण के पाश में बांधकर प्रह्लाद को उन्होंने फिर गुरुगृह भेज दिया। शिक्षा तथा संग के प्रभाव से बालक सुधर जाये, यह उनकी इच्छा थी। गुरुगृह में प्रह्लाद अपने गुरुओं की पढ़ायी विद्या पढ़ते तो थे, पर उनका चित्त उसमें लगता नहीं था। जब दोनों गुरु आश्रम के काम में लग जाते, तब प्रह्लाद अपने सहपाठी बालकों को बुला लेते। एक तो ये राजकुमार थे, दूसरे अत्यन्त नम्र तथा सबसे स्नेह करने वाले थे, अत: सब बालक खेलना छोड़कर इनके बुलाने पर इनके समीप ही एकत्र हो जाते थे। प्रह्लाद बड़े प्रेम से उन बालकों को समझाते थे- "भाईयो! यह जनम व्यर्थ नष्ट करने योग्य नहीं है। यदि इस जीवन में भगवान को न पाया गया तो बहुत बड़ी हानि हुई। घर-द्वार, स्त्री–पुरुष, राज्य-धन आदि तो दु:ख ही देने वाले हैं। इनमें मोह करके तो नरक जाना पड़ता है। इन्द्रियों को विषयों से हटा लेने में ही सुख और शान्ति है। भगवान को पाने का साधन सबसे अच्छे रूप में इस कुमारावस्थाओं में ही हो सकता है। बड़े होने पर तो स्त्री, पुत्र, धन आदि का मोह मन को बांध लेता है और भला, वृद्धावस्था में कोई कर ही क्या सकता है। भगवान को पाने में कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं। वे तो हम सबके हृदय में ही रहते हैं। सब प्राणियों में वे ही भगवान हैं, अत: किसी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिये। मन को सदा भगवान में ही लगाये रहना चाहिये।" सीधे-सादे सरल-चित्त दैत्य बालकों पर प्रह्लाद के उपदेश का प्रभाव पड़ता था। बार-बार सुनते-सुनते वे उस उपदेश पर चलने का प्रयत्न करने लगे। शुक्राचार्य के पुत्रों ने यह सब देखा तो उन्हें बहुत भय हुआ। उन्होंने प्रह्लाद को दैत्यराज के पास ले जाकर सब बातें बतायीं।
हिरण्यकशिपु का वध
अब हिरण्यकशिपु ने अपने हाथ से प्रह्लाद को मारने का निश्चय किया। उसने गरजकर पूछा- "अरे मूर्ख! तू किसके बल पर मेरा बराबर तिरस्कार करता है? मैं तेरा वध करूँगा। कहाँ है तेरा वह सहायक? वह अब तुझे आकर बचाये तो देखूँ।" प्रह्लाद ने नम्रता से उत्तर दिया- "पिताजी! आप क्रोध न करें। सबका बल उस एक निखिल शक्तिसिन्धु के सहारे ही है। मैं आपका तिरस्कार नहीं करता। संसार में जीव का कोई शत्रु है तो उसका अनियंत्रित मन ही है। उत्पथगामी मन को छोड़कर दूसरा कोई किसी का शत्रु नहीं। भगवान तो सब कहीं हैं। वे मुझ में हैं, आप में हैं, आपके हाथ के इस खड्ग में हैं, इस खम्भे में हैं, सर्वज्ञ हैं।" "वे इस खम्भे में भी हैं?" हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद की बात पूरी होने नहीं दी। उसने सिंहासन से उठकर पूरे जोर से एक घूँसा खम्भे पर मारा। घूँसे के शब्द के साथ ही एक महाभयंकर दूसरा शब्द हुआ, जैसे सारा ब्रह्माण्ड फट गया हो। सब लोग भयभीत हो गये। हिरण्यकशिपु भी इधर-उधर देखने लगा। उसने देखा कि वह खम्भा बीच से फट गया है और उसमें से मनुष्य के शरीर एवं सिंह के मुख की एक अद्भुत भयंकर आकृति प्रकट हो रही है। भगवान नृसिंह के प्रचण्ड तेज से दिशाएं जल-सी रही थीं। वे बार-बार गर्जन कर रहे थे। दैत्य ने बहुत उछल-कूद की, बहुत पैंतरे बदले उसने, किंतु अन्त में नृसिंह भगवान ने उसे पकड़ लिया और राजसभा के द्वार पर ले जाकर अपने जानु पर रखकर नखों से उसक हृदय फाड़ डाला। दैत्यराज हिरण्यकशिपु मारा गया।
भगवान के स्नेह पात्र
हिरण्यकशिपु के वध के बाद भी भगवान नृसिंह का क्रोध शान्त नहीं होता था। वे बार-बार गर्जना कर रहे थे। भगवान ब्रह्मा, शंकर तथा दूसरे सभी देवताओं ने दूर से ही उनकी स्तुति की। पास आने का साहस तो भगवती लक्ष्मी जी भी न कर सकीं। वे भी भगवान का वह विकराल क्रुद्ध रूप देखकर डर गयीं। अन्त में ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को नृसिंह भगवान को शान्त करने के लिये उनके पास भेजा। प्रह्लाद निर्भय भगवान के पास जाकर उनके चरणों पर गिर गये। भगवान ने स्नेह से उन्हें उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। वे बार-बार अपनी जीभ से प्रह्लाद को चाटते हुए कहने लगे- "बेटा प्रह्लाद! मुझे आने में बहुत देर हो गयी। तुझे बहुत कष्ट सहने पड़े। तू मुझे क्षमा कर दे।"
प्रह्लाद का कण्ठ भर आया। आज त्रिभुवन के स्वामी उनके मस्तक पर अपना अभय कर रखकर उन्हें स्नेह से चाट रहे थे। प्रह्लाद धीरे से उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति की। बड़े ही भक्तिभाव से उन्होंने भगवान का गुणगान किया। अन्त में भगवान ने उनसे वरदान मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा- "प्रभो! आप वरदान देने की बात करके मेरी परीक्षा क्यों लेते हैं? जो सेवक स्वामी से अपनी सेवा का पुरस्कार चाहता है, वह तो सेवक नहीं, व्यापारी है। आप तो मेरे उदार स्वामी हैं। आपको सेवा की अपेक्षा नहीं है और मुझे भी सेवा का कोई पुरस्कार नहीं चाहिये। मेरे नाथ! यदि आप मुझे शुद्ध वरदान ही देना चाहते हैं तो मैं आपसे यही मांगता हूँ कि मेरे हृदय में कभी कोई कामना ही न उठे।" फिर प्रह्लाद ने भगवान से प्रार्थना की- "मेरे पिता आपकी और आपके भक्त मेरी निन्दा करते थे, वे इस पाप से छूट जायं।"
भगवान ने कहा- "प्रह्लाद! जिस कुल में मेरा भक्त होता है, वह पूरा कुल पवित्र हो जाता है। तुम जिसके पुत्र हो, वह तो परम पवित्र हो चुका। तुम्हारे पिता तो इक्कीस पीढ़ियों के साथ पवित्र हो चुके। मेरा भक्त जिस स्थान पर उत्पन्न होता है, वह स्थान धन्य है। वह पृथ्वी तीर्थ हो जाती है, जहाँ मेरा भक्त अपने चरण रखता है।" भगवान ने वचन दिया कि "अब मैं प्रह्लाद की सन्तानों का वध नहीं करूँगा।" कल्पर्यन्त के लिये प्रह्लाद अमर हुए। वे भक्तराज अपने महाभागवत पौत्र बलि के साथ अब भी सुतल में भगवान की आराधना में नित्य तन्मय रहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवतपुराण 6.18.12, 13; 7.1.41; ब्रह्माण्डपुराण 3.5.33; 8.6; मत्स्यपुराण 6.9; वायुपुराण 67.70; विष्णुपुराण 1.15.142
- ↑ भागवतपुराण 1.3.11; 12.25; 4.21.29; 5.18.7; 6.18.10, 16; 7.1.41-43; 10.39.54; 63.47-9; विष्णुपुराण 1.15.143-52
- ↑ भागवतपुराण 7.5.550; अध्याय 6-9 पूरा; 10.1-24, 32-4; 4.21.29, 47; मत्स्यपुराण 162.2, 14
- ↑ भागवतपुराण 6.18.15.16; मत्स्यपुराण 6.9
- ↑ विष्णुपुराण 1.21.14; 22.4; 4.9.5
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