पारसंवी

पारसंवी महात्मा विदुर की पत्नी थी। महाभारत में विदुर आदर्श भगवद्भक्त, उच्च कोटि के साधु और स्पष्टवादी थे। दुर्योधन इनकी स्पष्टवादिता पर सदा ही नाराज रहता था। विदुर का धृतराष्ट्र पर बहुत प्रेम था। इसी से वे समय-समय पर दुर्योधन के द्वारा अपमान सहकर भी वहाँ रहते थे। इनके लिये कौरव-पांडव दोनों ही समान थे। पर धर्म के मार्ग पर स्थित होने के कारण पांडव इनको विशेष प्रिय थे। ये सदा पांडवों की मंगल-कामना किया करते थे। श्रीकृष्ण में इनकी अनुपम प्रीति थी। इनकी धर्मपत्नीं पारसंवी भी परम साध्वी, त्यागमूर्ति तथा भगवद्भक्तिमयी थी।

श्रीकृष्ण का आगमन

भगवान श्रीकृष्ण जब दूत बनकर हस्तिनापुर पधारे, तब दुर्योधन के प्रेमरहित महान स्वागत-सत्कार का परित्याग करके उन्होंने विदुर के घर ठहरकर इनके घर की रूखी-सूखी शाक-भाजी खायी। कहा जाता है कि जिस समय भगवान कृष्ण दुर्योधन के यहाँ से बिना भोजन किये प्रस्थान कर विदुर के घर पहुँचे, उस समय विदुरपत्नी पारसंवी घर के भीतर नहा रही थी। विदुर घर पर थे नहीं, परिग्रह के अभाव से या स्वेचच्छाकृत दरिद्रता से विदुर के घर में वस्त्रों का अत्युन्त अभाव था। अत: वह नंगी नहा रही थी। दरवाजे पर पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण ने आवाज की- "किवाड़ खोलो, मैं कृष्ण खड़ा हूँ, मुझे बड़ी भूख लगी है।" भगवान की आवाज सुनते ही पारसंवी सुध-बुध भूल गयी और उन्मत्त-सी होकर उसी दशा में किवाड़ खोलने को दौड़ी आयी। झट से किवाड़ खोल दिये। भगवान ने उसकी प्रेमोन्मत्त स्थिति समझकर उसी क्षण अपना पीताम्बर उसके शरीर पर डाल दिया, दिव्य पीतपट ने उसके समस्त शरीर को ढक लिया।

भगवान का आथित्य

विदुरपत्नी पारसंवी प्रेमोन्मादिनी सी भगवान को हाथ से पकड़कर भीतर ले गयी, उसे बस, इतना ही याद था- "मैं कृष्ण भूखा हूँ।" जल्दी-से-जल्दी क्या खिलाऊँ? अन्द‍र ले जाकर उसने एक उल्टे पीढ़े पर उन्हें बैठा दिया और खिलाने के लिये केले लेकर उनके पास बैठ गयी। प्रेम और प्रसन्नता से मतवाली विदुरपत्नी केले छील-छीलकर उसका गूदा तो फेंकने लगी और छिल्के भगवान को देने लगी। भगवान की तो प्रतिज्ञा ही ठहरी-

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:।।[1]

भगवान कृष्ण बड़े प्रेम से सराह-सराहकर छिल्के खाने लगे। दोनों प्रेमदान तथा प्रेमसुधापान में तन्मय थे। इतने में विदुर आ गये। वे कुछ देर तो स्तम्भित होकर खड़े रहे, फिर उन्होंने यह व्यवस्था देखकर पारसंवी को डांटा, तब उसे चेत हुआ और वह पश्चाताप करने के साथ ही अपने मन की सरलता से श्रीकृष्ण। को उलाहना देने लगी-

छिलका दीन्हेे स्याम कहँ, भूली तन मन ज्ञान।
खाए पै क्यों आपने, भूलि गए क्यों भान।।

भगवान इस सरल वाणी पर हँस दिये। भगवान ने कहा- "विदुर जी आप बड़े बेसमय आये। मुझे बड़ा ही सुख मिल रहा था। मैं तो ऐसे ही भोजन के लिये सदा अतृप्त रहता हूँ।" अब विदुर जी भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे। भगवान ने कहा- "विदुर जी आपने केले तो मुझे बड़ी सावधानी से खिलाये, पर न मालूम क्यों इनमें छिल्के-जैसा स्वाद नहीं आया।" विदुरपत्नी के नेत्रों से प्रेम के आंसू झर रहे थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 9। 26

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