धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन

मार्कण्डेय, युधिष्ठिर आदि को कौशिक की कथा सुनाते हैं कथा के अनुसार धर्मव्‍याध के द्वारा कोशिक से हिंसा और अहिंसा का विवेचन किया जाता है और अब धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल के वर्णन के बारे में बताया गया है, जिसका उल्लेख महाभारत वनपर्व के 'मार्कण्डेयसमस्या पर्व' के अंतर्गत अध्याय 209 में बताया गया है[1]-

धर्म की सूक्ष्मता

मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- सम्‍पूर्ण धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर। तदनन्‍तर धर्मव्‍याध ने विप्रवर कौशिक से पुन: कुशलता पूर्वक कहना आरम्‍भ किया।

व्‍याध बोला- वृद्ध पुरुषों का कहना है कि ‘धर्म के विषय में केवल वेद ही प्रमाण है। यह ठीक है, तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्‍म है। उसके अनन्‍त भेद और अनेक शाखाएं हैं।[2]यदि किसी के प्राणों पर संकट आ जाय अथवा कन्‍या आदि का विवाह तै करना हो तो ऐसे अवसरों पर प्राण रक्षा आदि के लिये झूठ बोलने की आवश्‍यकता पड़ जाय, तो वहाँ असत्‍य ही सत्‍य का फल मिलता है। इसके विपरीत[3]सत्‍य से ही असत्‍य का फल मिलता है। इसके विपरीत[4]सत्‍य से ही असत्‍य का फल प्राप्‍त होता है। जिससे परिणाम में प्राणियों का अतयन्‍त हित होता हो, वह वास्‍तव में सत्‍य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्‍य होने पर भी वास्‍तव में असत्‍य एवं अधर्म है इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्‍म है। सज्‍जन शिरोमणे। मनुष्‍य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उस अवश्‍य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है। मुर्ख मानव संकट की दशा में पड़ने पर देवताओं को बहुत कोसता है, उनकी भरपेट निन्‍दा करता है; किंतु वह यह नहीं समझता कि यह अपने ही कर्मो का दोषा वह परिणाम है। द्विज श्रेष्‍ठ। मुर्ख, शठ और चंचल चित्तवाला मनुष्‍य तदा ही भ्रम वंश मुख में दु:ख और दु:ख में सुख बुद्धि कर लेता है। उस समय बुद्धि, उत्तम नीति[5]तथा पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते। यदि पुरुषार्थ जनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्‍छा होती, उसी को वह प्राप्‍त कर लेता। किंतु बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्‍य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं, तो भी वे इच्‍छानुसार फल की प्राप्ति से वंचित ही देखे जाते हैं। तथा दूसरा मनुष्‍य, जो निरन्‍तर जीवों की हिंसा के लिये उद्यत रहता है और सदा लोगों को ठगन में ही लगा रहता है, वह सुख पूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है।

कोई बिना उधोग किये चुप चाप बैठा रहता है और लक्ष्‍मी उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती है और कोई सदा काम करते रहने पर भी अपने उचित वेतन से भी वंचित रह जाता है[6]। कितने ही दीन मनुष्‍य पुत्र की कामना रखकर देवताओ को पूजते और कठिन तपस्‍या करते हैं, तो भी उनके द्वारा गर्भ में स्‍थापित तथा दस मास तक माता के उदर में पालित होकर जो पुत्र पैदा होते है, वे कुलागड़ार निकल जाते हैं। और दूसरे बहुत से ऐसे भी हैं, जो अपने पिता के द्वारा जोड़कर रखे हुए धन-धान्‍य तथा भोग विलास के प्रचुर साधनों के साथ पैदा होते हैं और उनकी प्राप्ति भी उन्‍हीं मागड़लिक कृत्‍यों के अनुष्‍ठान से होती है।

शुभाशुभ कर्म और उनके फल

इसमें संदेह नहीं कि मनुष्‍यों के जो रोग होते हैं, वे उनके कर्मो के ही फल हैं। जैसे बहेलिये छोटे मृगों का पीड़ा देती रहती हैं। ब्रह्मन[7]ओषधियों का संग्रह करने वाले चिकित्‍सा कुशल चतुर उन रोगव्‍याधियों का उसी प्रकार निवारण कर देते हैं, जैसे व्‍याध मृगों को भगा देते हैं। धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ कौशिक। देखो, जिनके यंहा भोजन का भण्‍डार भरा पड़ा है, उन्‍हें प्राय: संग्रहणी सता रही है, वे उसका उपभोग नहीं कर पाते है। विप्रवर। दूसरे बहुत-से ऐसे मनुष्‍य हैं, जिनकी भुजाओं में बल है- जो स्‍वस्‍थ और अन्न को पचाने में समर्थ हैं, परंतु उन्‍हें बड़ी कठिनाई से भोजन मिल पाता है- वे सदा ही अन्‍न का कष्‍ट भोगते रहते हैं। इस प्रकार यह संसार असहाय तथा मोह, शोक में डूबा हुआ है। कर्मो के अत्‍यन्‍त प्रबल प्रवाह में पड़कर बार-बार उसकी आधि-व्‍या‍धिरुपी तरगड़ों के थपेड़े सहता और विवश होकर इधर-से-उधर बहता रहता है। यदि जीव अपने वश में होते तो वे न मरते और न बूढ़े ही होते। सभी सब तरह की मनचाही वस्‍तुओं को प्राप्‍त कर लेते। किसी को अप्रिय घटना नहीं देखनी पड़ती। सब लोग सारे जगत के ऊपर-ऊपर जाने की इच्‍छा रखते हैं- सभी सबसे ऊंचा होना चाहते हैं और उसके लिये वे यथा शक्ति प्रयत्‍न भी करते हैं, पंरतु[8]वैसा होता नहीं है। बहुत से ऐसे मनुष्‍य देखे जाते हैं, जिनका जन्‍म समान रुप से ही किये गये हैं, परंतु विभिन्‍न प्रकार के कर्मों का संग्रह होने के कारण उन्‍हें होने वाले फल में महान अन्‍तर दृष्टि गोचर होता है। ब्रह्मन। साधुशिरोमणे। कोर्इ अपने हाथ में आयी हुई वस्‍तु का भी उपयोग करने में समर्थ नहीं है। इस जगत में पूर्व जन्‍म में किये हुए कर्मों के ही फल की प्राप्ति देखी जाती है। विप्रवर। श्रुति के अनुसार यह जीवात्‍मा निश्‍चय ही सनातन है और संसार में समस्‍त प्राणियों का शरीर नश्‍वर है। शरीर पर आघात करने से उस शरीर का नाश तो हो जाता है; किंतु अविनाशी जीव नहीं मरता। वह कर्मो के बन्‍धन में बंधकर फिर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।

जीव का सनातन होना

ब्राह्मण ने पुछा- धर्मज्ञों तथा वक्‍ताओं में श्रेष्‍ठ व्‍याध। जीव सनातन कैसे है मैं इस विषय को यथार्थ रुप से जानना चाहता हूँ।

धर्मव्‍याध ने कहा- ब्रह्मन। देह का नाश होने पर जीव का नाश नहीं होता। मनुष्‍यों का यह कथन कि ‘जीव मरता है’ मिथ्‍या ही है, किंतु जीव तो इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चल जाता है। शरीर के पांचों तत्‍वों का पृथक-पृथक पांच भूतों में मिल जाना ही उसका नाश कहलाता है। इस मानवलोक में मनुष्‍य के किये हुए कर्म को[9]दूसरा कोई नहीं भोगता है। उसके द्वारा जो कुछ ही कर्म किया गया है, उसे वह स्‍वयं ही भोगेगा। किये हुए कर्मो का कभी नाश नहीं होता। पुण्‍यातमा मनुष्‍य पुण्‍यकर्मो का अनुष्‍ठान करते हैं और नीच मनुष्‍य पाप में प्रवृत होते हैं। यहाँ अपने किये हुए कर्म मनुष्‍य का अनुसरण करते हैं और उनसे प्रभावित होकर वह दूसरा जन्‍म धारण करता है।[10]

अशुभ कर्मो का फल

ब्राह्मण ने पूछा- सत्‍पुरुषों में श्रेष्‍ठ। जीव दूसरी योनि में कैसे जन्‍म लेता है, पाप और पुण्‍य से उसका सम्‍बन्‍ध किस प्रकार होता है तथा उसे पुण्‍ययोनि और पापयोनि की प्राप्ति कैसे होती है।

व्‍याध ने कहा- विप्रवर। गर्भाधान आदि संस्‍कार सम्‍बन्‍धी ग्रन्‍थों द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है 'कि यह जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है, सब कर्मो का ही परिणाम है। अत: किस कर्म से कहाँ जन्‍म होता है इस परिणाम है। अत: किस कर्म से कहाँ जन्‍म होता है इस विषयक मैं तुम से संक्षिप्‍त वर्णन करता हूं, सुनो। जीव कर्म बीजों का संग्रह करके जिस प्रकार पुन: जन्‍म ग्रहण करता है, वह बताया जा रहा है। शुभ कर्म करने वाला मनुष्‍य शुभ योनियों में और पाप कर्म करने वाला पापयोनियों में जन्‍म लेता है। शुभकर्मों के संयोग से जीव को देवत्‍व की प्राप्ति होती है। शुभ और अशुभ दोनों के सम्मिश्रण से उसका मनुष्‍योनि में जन्‍म होता है। मोह में डालने वाले तामस कर्मों के आचरण से जीव पशु, पक्षी आदि की योनि में जन्‍म ग्रहण करता है और जिसने केवल पाप का ही संचय किया है, वह नरक गामी होता है। मनुष्‍य अपने ही किये हुए अपराधों के कारण जन्‍म- मृत्यु और जरा सम्‍बन्‍धी दु:खों से सदा पीड़ित हो बारंबार संसार में पचता रहता है। कर्मबन्‍ध में बंधे हुए[11]जीव सहस्‍त्रों प्रकार की तिर्यक योनियों तथा नरकों में चक्‍कर लगाया करते हैं। प्रत्‍येक जीव अपने किये हुए कर्मो से ही मृत्‍यु के पश्‍यचात दु:ख भोगता है और उस दु:ख का भोग करने के लिये ही वह[12]पापयोनि में जन्‍म लेता है। वहाँ फिर नये-नये बहुत से पाप कर्म कर डालता है, जिसके कारण कुपथ्‍य खा लेने वाले रोगी की भाँति उसे नाना प्रकार के कष्‍ट भोगने पड़ते है। इस प्रकार वह यद्यपि निरन्‍तर दु:ख ही भोगता रहता है, तथापि अपने को दुखी नहीं मानता। इस दु:ख को ही वह सुख की संज्ञा दे देता है। जब तक बन्‍धन में डालने वाले कर्मो का भोग पूरा नहीं होता और नये-नये कर्म बनते रहते है, तब तक अनेक प्रकार के कष्‍टों को सहन करता हुआ वह चक्र की तरह इस संसार में चक्‍कर लगाता रहता है।

शुभ कर्मो का फल

द्विज श्रेष्‍ठ। जब बन्‍धन कारक कर्मो का भोग पूरा हो जाता है और सत्‍कर्मो के द्वारा मनुष्‍य में शुद्धि आ जाती है, तब वह तप और योग का आरम्‍भ करता है। अत: बहुत से शुभकर्मो के फलस्‍व रुप उसे उत्तम लोकों का भोग प्राप्‍त होता है। इस प्रकार बन्‍धन रहित तथा शुद्ध हुआ मनुष्‍य अपने पुण्‍य कर्मो के प्रभाव से पुण्‍य लोक प्राप्‍त करता है, जहाँ जाकर कोई भी शोक नहीं करता है। पाप करने वाले मनुष्‍यो को पाप की आदत हो जाती है, फिर उसके पाप का अन्‍त नहीं होता; अत: मनुष्‍यो को चाहिये कि वह पुण्‍य कर्म करने का प्रयत्‍न करे और पाप को सर्वथा त्‍याग दे। पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य दोष दृष्टि से रहित और कृतज्ञ होकर कल्‍याणकारी कर्मो का सेवन करता है तथा उसे सुख, धर्म, अर्थ[13]जो संत्‍कार सम्‍पन्न, जितेन्द्रिय, शौचाचारपरायण और मन को काबू में रखने वाला है, तथा बुद्धिमान पुरुष को इहलोक और परलोक में भी सुख की प्राप्ति होती है। ब्रह्मन। अत: मनुष्‍य को चाहिये कि वह सतपुरुषों के धर्म का पालन करे, शिष्‍ट पुरुषों के समान बर्ताव करे और जगत में किसी भी प्राणी को कष्‍ट दिये बिना जिससे जीवन-निर्वाह हो सके, ऐसी आजीविका प्राप्‍त करने की इच्‍छा करे। संसार में बहुत से वेदवेत्ता और शास्‍त्र विचक्षण शिष्‍ट पुरुष विद्यमान हैं: उनके उपदेश के अनुसार स्‍वधर्म के पालन पूर्वक प्रत्‍येक कार्य करना चाहिये, इससे कर्मो का संकर नहीं हो पाता।[14]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 1-13
  2. वेद के अनुसार सत्‍य धर्म और असत्‍य अधर्म हैं, परंतु
  3. यदि सत्‍य भाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां
  4. यदि सत्‍य भाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां
  5. शिक्षा
  6. ऐसा देखा जाता है
  7. उनका भोग पूरा होने पर
  8. सभी जगह
  9. उस कर्ता के सिवा
  10. महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 14-28
  11. पापी
  12. चाण्‍डालादि
  13. महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 29-42
  14. महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 43-56

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भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत | पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान | पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास | पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश | द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना | भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना | भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप | युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज | युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना | सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश | पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन | तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य | ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा | तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद | वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा | चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन | प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन | मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन | मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप | बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना | मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन | युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन | कल्कि अवतार का वर्णन | भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना | मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश | इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह | शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता | इन्द्र और बक मुनि का संवाद | सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा | ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान | सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र | इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा | नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन | इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा | मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन | मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन | उत्तंक मुनि की कथा | उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह | ब्रह्मा की उत्पत्ति | विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध | धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति | कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध | कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति | पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य | कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान | कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना | धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा | धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन | धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन | धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन | धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश | धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना | धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार | अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना | अंगिरा की संतति का वर्णन | बृहस्पति की संतति का वर्णन | पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति | पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन | अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन | सह अग्नि का जल में प्रवेश | अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य | इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार | इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना | अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन | स्कन्द की उत्पत्ति | स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण | विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना | अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना | इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान | स्कन्द के पार्षदों का वर्णन | स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप | स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक | स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह | कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति | मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन | स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार | रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा | देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध | कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा | द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा | सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार | शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना | दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना | दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति | द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद | कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय | गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण | कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश | पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध | पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय | चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा | दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन | दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना | दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश | कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय | दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना | दैत्यों का दुर्योधन को समझाना | दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान | भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव | कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान | कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय | कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार | दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी | दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति | कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा | युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन | व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन | दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा | महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना | देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन | व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार | दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना | द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना | कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना | जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना | कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना | द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर | जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद | जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण | पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना | द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन | पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार | युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना | भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना | शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना | राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन | रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति | कुबेर का रावण को शाप देना | देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना | राम के राज्याभिषेक की तैयारी | राम का वन को प्रस्थान | भरत की चित्रकूट यात्रा | राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप | राम द्वारा मारीच का वध | रावण द्वारा सीता का अपहरण | रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार | राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध | राम और सुग्रीव की मित्रता | राम द्वारा बाली का वध | अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन | रावण और सीता का संवाद | राम का सुग्रीव पर कोप | सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना | हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना | वानर सेना का संगठन | नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण | विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश | अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना | राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम | राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध | प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध | रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना | कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध | इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा | राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना | लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध | रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना | राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध | राम का सीता के प्रति संदेह | देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन | राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक | मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति | सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण | सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय | सावित्री और सत्यवान का विवाह | सावित्री की व्रतचर्या | सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना | सावित्री और यम का संवाद | यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना | सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप | राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता | सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन | द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना | कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना | सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश | कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय | कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन | कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना | कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या | कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश | कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन | कुन्ती-सूर्य संवाद | सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन | कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप | अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति | कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन | कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति | इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग | युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश | नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना | यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद | यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर | युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना | यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना | युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना | भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श

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