- महाभारत वनपर्व के अर्जुनाभिगमनपर्व के अंतर्गत अध्याय बारह में द्रौपदी का कृष्ण से अपने अपमान का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से द्रौपदी का कृष्ण से अपने अपमान का वर्णन की कथा कही है।[1]
विषय सूची
द्रौपदी द्वारा कृष्ण से अपने अपमान का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! रोषावेश से भरे हुए राजाओं की मण्डली में उस वीर समुदाय के मध्य महात्मा केशव के ऐसा कहने पर धृष्टद्युम्न आदि भाइयों से घिरी और कुपित हुई पांचाल राजकुमारी द्रौपदी भाइयों के साथ बैठे हुए शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण के पास जा उनकी शरण की इच्छा रखती हुई बोली।
द्रौपदी ने कहा - प्रभो! ऋषि लोग प्रजा सृष्टि के प्रारम्भ-काल में एकमात्र आपको ही सम्पूर्ण जगत का स्रष्टा एवं प्रजापति कहते हैं। महर्षि असित-देवकाल का यही मत है। दुर्द्धष मधुसूदन! आप ही विष्णु हैं, आप ही यज्ञ हैं, आप ही यजमान हैं और आप ही यजन करने योग्य श्री हरि हैं, जैसा कि जमदग्निनन्दन परशुराम का कथन है। पुरुषोत्तम! कश्यप जी का कहना है कि महर्षिगण आपको क्षमा और सत्य का स्वरूप कहते हैं। सत्य से प्रकट हुए यज्ञ भी आप ही हैं। भूतभावन भूतेश्वर! आप साध्य देवताओं तथा कल्याणकारी रुद्रों के ईश्वर नारद जी ने आप के विषय में सही विचार प्रकट किया है। नरश्रेष्ठ! जैसे बालक खिलौने से खेलता है,उसी प्रकार आप ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से बारम्बार क्रीड़ा करते रहते हैं। प्रभो! स्वर्गलोक आपके मस्तक में और पृथ्वी आपके चरणों में व्याप्त है। ये सब लोक आपके उदरस्वरूप हैं। आप सनातन पुरुष हैं। विद्या और तपस्या से सम्पन्न तथा तप के द्वारा शोभित अन्तःकरण वाले आत्मज्ञान से तृप्त महर्षियों में आप ही परमश्रेष्ठ हैं। पुरुषोत्तम! युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले, सब धर्मों से सम्पन्न पुण्यात्मा राजर्षियों के आप ही आश्रय हैं। आप ही प्रभो ( सबके स्वामी ), आप ही विभु ( सर्वव्यापी ) और आप सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। आप ही विविध प्राणियों के रूप में नाना प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे हैं।[1]
लोक, लोकपाल, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, आकाश चन्द्रमा और सूर्य सब आप में प्रतिष्ठित हैं। महाबाहो! भूलोक के प्राणियों की मृत्युपरवशता, देवताओं की अमरता तथा सम्पूर्ण जगत का कार्य सब कुछ आप में ही प्रतिष्ठित है। मधुसूदन! मैं आपके प्रति प्रेम होने के कारण आपसे अपना दुःख निवेदन करूँगी; क्योंकि दिव्य और मानव जगत में जितने भी प्राणी हैं; उन सबके ईश्वर आप ही हैं। भगवान कृष्ण! मेरे-जैसी स्त्री को कुन्ती पुत्रों की पत्नी, आपकी सखी और धृष्टद्युम्न-जैसे वीर की बहिन हो, क्या किसी तरह सभा में (केश पकड़कर) घसीटकर लायी जा सकती है?। मैं राजबाला थी, मेरे कपड़ों पर रक्त के छींटे लगे थे, शरीर पर एक ही वस्त्र था और लज्जा एवं भय से मैं थर-थर काँप रही थी। उस दशा में मुझ दुखिनी अबला को कौरवों की सभा में घसीटकर लाया गया था।
भरी सभा में राजाओं की मण्डली के बीच अत्यन्त रक्तस्राव हाने के कारण मैं रक्त से भीगी जा रही थी। उस अवस्था में मुझे देखकर धृतराष्ट्र के पापात्मा पुत्रों ने जोर-जोर से हँसकर मेरी हँसी उड़ायी। मधुसूदन (कृष्ण)! पाण्डवों, पांचालों और वृष्णिवंशी वीरों के जीते-जी धृतराष्ट्र के पुत्रों ने दासीभाव से मेरा उपभोग करने की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण! मैं धर्मतः भीष्म और धृतराष्ट्र दोनों की पुत्रवधु हूँ; तो भी उनके सामने ही बलपूर्वक दासी बनायी गयी। मैं तो संग्राम में श्रेष्ठ इन महाबली पाण्डवों की निन्दा करती हूँ; जो अपनी यशस्विनी धर्मपत्नी को शत्रुओं द्वारा सतायी जाती हुई देख रहे थे। जनार्दन! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है, जो उन नराधर्मों द्वारा मुझे अपमानित होती देखकर भी सहन कर रहे थे। सत्पुरुषों द्वारा सदा आचरण में लाया हुआ यह धर्म का सनातन मार्ग है कि निर्बल पति भी अपनी पत्नी की रक्षा करते हैं। पत्नी की रक्षा करने से अपनी संतान सुरक्षित होती है और संतान की रक्षा होने पर अपने आत्मा की रक्षा होती है। अपनी आत्मा ही स्त्री के गर्भ से जन्म लेती है; इसीलिये वह जाया कहलाती है। पत्नी को भी अपने पति की रक्षा इसीलिये करनी चाहिये कि यह किसी प्रकार मेरे उदर से जन्म ग्रहण करे। ये अपनी शरण में आने पर कभी किसी का भी त्याग नहीं करते; किन्तु इन्हीं पाण्डवों ने मुझ शरणागत अबला पर तनिक भी दया नहीं की।
जनार्दन! इन पाँच पतियों से उत्पन्न हुए मेरे महाबली पाँच पुत्र हैं। उनकी देखभाल के लिये भी मेरी रक्षा आवश्यक थी। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक और पाण्डव और छोटे सहदेव से श्रुतकर्मा का जन्म हुआ है। ये सभी कुमार सच्चे पराक्रमी हैं। श्रीकृष्ण! आपका पुत्र प्रद्युम्न जैसा शूरवीर है, वैसे ही मेरे महारथी पुत्र भी हैं। ये धनुर्विद्या में श्रेष्ठ तथा शत्रुओं द्वारा युद्ध में अजेय हैं तो भी दुर्बल धृतराष्ट्र-पुत्रों का अत्याचार कैसे सहन करते हैं? अधर्म से सारा राज्य ग्रहण कर लिया गया, सब पाण्डव दास बना दिये गये और मैं एकवस्त्रधारिणी राजबाला होने पर भी सभा में घसीटकर लायी गयी। मधुसूदन! अर्जुन के पास जो गाण्डीव धनुष है, उस पर अर्जुन, भीम अथवा आपके सिवा दूसरा कोई प्रत्यन्चा भी नहीं चढ़ा सकता।[2][3]
कृष्ण! भीमसेन के बल को धिक्कार है, अर्जुन के पुरुषार्थ को भी धिक्कार है, जिसके होते हुए दुर्योधन इतना बड़ा अत्याचार करके दो घड़ी भी जीवित रह रहा है। मधुसूदन! पहले बाल्यावस्था में, जबकि पाण्डव ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए अध्ययन में लगे थे, किसी की हिंसा नहीं करते थे, जिस दुष्ट ने इन्हें इनकी माता के साथ राज्य से बाहर निकाल दिया था। जिस पापी ने भीमसेन के भोजन में नूतन, तीक्ष्ण परिमाण में अधिक एवं रोमांचकारी कालकूट नामक विष डलवा दिया था। महाबाहु नरश्रेष्ठ जनार्दन! भीमसेन की आयु शेष थी, इसीलिये वह घातक विष अन्न के साथ ही पच गया और उसने कोई विकार नहीं उत्पन्न किया( इस प्रकार उस दुर्योधन के अत्याचारों को कहाँ तक गिनाया जाये )।
श्रीकृष्ण! प्रमाणकोटि तीर्थ में, जब भीमसेन विश्वस्त होकर सो रहे थे, उस समय दुर्योधन ने इन्हें बाँधकर गंगा में फेंक दिया और स्वयं चुपचाप राजधानी में लौट आया। जब इनकी आँख खुली तो ये महाबली महाबाहु भीमसेन सारे बन्धनों को तोड़ कर जल से ऊपर उठे। इनके सारे अंगों में विषैले काले सर्पो से डसवाया; परंतु शत्रुहन्ता भीमसेन मर न सके। जागने पर कुन्तीनन्दन भीम ने सब सर्पों को उठा-उठा-कर पटक दिया। दुर्योधन ने भीमसेन के प्रिय सारथि को भी उलटे हाथ से मार डाला। इतना ही नहीं, वारणावत में आर्या कुन्ती के साथ में ये बालक पाण्डव सो रहे थे, उस समय उसने घर में आग लगवा दी, ऐसा दुष्कर्म दूसरा कौन कर सकता है? उस समय वहाँ आर्या कुन्ती भयभीत हो रोती हुई पाण्डवों से इस प्रकार बोलीं- ‘मैं बड़े भारी संकट में पड़ी, आग से घिर गयी।' ‘हाय! हाय! ' मैं मारी गयी, अब इस आग से कैसे शान्ति प्राप्त होगी? मैं अनाथ की तरह अपने पुत्रों के साथ नष्ट हो जाऊँगी।' उस समय वहाँ वायु के समान वेग और पराक्रम वाले महाबाहु भीमसेन ने आर्या कुन्ती तथा भाइयों को आश्वासन देते हुए कहा--‘पक्षियों में श्रेष्ठ विनतानन्दन गरुड़ जैसे उड़ा करते हैं, उसी प्रकार मैं भी तुम सब को लेकर यहाँ से चल दूँगा। अतः तुम्हें यहाँ तनिक भी भय नहीं है। '
ऐसा कहकर पराक्रमी एव बलवान भीम ने आर्या कुन्ती को बायें अंग में, धर्मराज को दाहिने अंग में, नकुल और सहदेव को दोनों कंधों पर तथा अर्जुन को पीठ पर चढ़ा लिया और सबको लिये-लिये सहसा वेग से उछलकर इन्होंने उस भयंकर अग्नि से भाइयों तथा माता की रक्षा की[4]फिर वे यशस्वी पाण्डव माता के साथ रात में ही वहाँ से चल दिये और हिडिम्ब वन के पास एक भारी वन में जा पहुँचे। वहाँ माता सहित ये दुखी पाण्डव थककर सो गये। सो जाने पर इनके निकट हिडिम्बा नामक राक्षसी आयी। माता सहित पाण्डवों को वहाँ धरती पर सोते देख काम से पीड़ित हो उस राक्षसी ने भीमसेन की कामना की। भीम के पैरों को अपनी गोदी में लेकर वह कल्याणमयी अबला अपने कोमल हाथों से प्रसन्नतापूर्वक दबाने लगी। उसका स्पर्श पाकर बलवान सत्य पराक्रमी तथा अमेयात्मा भीमसेन जाग उठे। जागने पर उन्होंने पूछा--‘सुन्दरी! यहाँ तुम क्या चाहती हो?।' इस प्रकार पूछने पर इच्छानुसार रूप धारण करने वाली उस अनिन्ध सुन्दरी राक्षसकन्या ने महात्मा भीम से कहा- ‘ आप लोग यहाँ से जल्दी भाग जायें, मेरा यह बलवान भाई हिडिम्ब आपको मारने के लिये आयेगा; अतः आप जल्दी चले जाइये,देर न कीजिये‘।[5]
यह सुनकर भीमसेन ने अभिमानपूर्वक कहा--‘मैं उस राक्षस से नहीं डरता। यदि वह यहाँ आयेगा, तो मैं ही उसे मार डालूँगा।' उन दोनों की बातचीत सुनकर वह भीम रूपधारी भयंकर एवं नीच राक्षस बड़े जोर से गर्जना करता हुआ वहाँ आ पहुँचा।
राक्षस बोला- हिडिम्बे! ‘तू किससे बात कर रही है? लाओ इसे मेरे पास। हम लोग खायेंगे। अब तुम्हें देर नहीं करनी चाहिये। मनस्विनी एवं अनिन्दिता हिडिम्बा ने स्नेहयुक्त हृदय के कारण दयावश यह क्रूरतापूर्ण संदेश भीमसेन से कहना उचित न समझा। इतने में ही वह नरभक्षी राक्षस घोर गर्जना करता हुआ बड़े वेग से भीमसेन की ओर दौड़ा। क्रोध में भरे हुए उस बलवान राक्षस ने बड़े. वेग से निकट जाकर अपने हाथ से भीमसेन का हाथ पकड़ लिया। भीमसेन के हाथ का स्पर्श इन्द्र के वज्र के समान था। उनका शरीर भी वैसा सुदृढ़ था। राक्षस ने भीमसेन से भिड़कर उनके हाथ को सहसा झटक दिया। राक्षस ने भीमसेन के हाथ को अपने हाथ से पकड़ लिया; यह बात महाबाहु भीमसेन नहीं सह सके। वे वहीं कुपित हो गये। उस समय सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता भीमसेन और हिडिम्ब में इन्द्र और वृत्तासुर के समान भयानक एवं घमासान युद्ध होने लगा। निष्पाप श्रीकृष्ण! महापराक्रमी और बलवान भीमसेन ने उस राक्षस के साथ बहुत देर तक खिलवाड़ करके उसके निर्बल हो जाने पर उसे मार डाला। इस प्रकार हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा को आगे किये भीमसेन अपने भाइयों के साथ आगे बढ़े। उसी हिडिम्बा से घटेात्कच का जन्म हुआ। तदनन्तर सब परंतप पाण्डव अपनी माता के साथ आगे बढ़े। ब्राह्मणों से घिरे हुए ये लोग एकचक्रा नगरी की ओर चल दिये। उस यात्रा में इनके प्रिय एवं हित में लगे हुए व्यास जी ही इनके परामर्शदाता हुए। उत्तम व्रत का पालन करने वाले पाण्डव उन्हीं की सम्मति से एकचक्रापुरी में गये। वहाँ जाने पर भी इन्हें नरभक्षी राक्षस महाबली बाकासुर मिला। वह भी हिडिम्ब के समान भयंकर था।
योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम उस भयंकर राक्षस को मारकर अपने सब भाइयों के साथ मेरे पिता द्रुपद की राजधानी में गये। श्रीकृष्ण! जैसे आपने भीष्मक नन्दिनी रुक्मिणी को जीता था, उसी प्रकार मेरे पिता की राजधानी में रहते समय सव्यसाची अर्जुन ने मुझे जीता। मधुसूदन! स्वयंवर में, जो महान कर्म दूसरों के लिये दुष्कर था, वह करके भारी युद्ध में भी अर्जुन ने मुझे जीत लिया था। परंतु आज मैं इन सबके होते हुए भी अनेक प्रकार के क्लेश भोगती और अत्यन्त दुःख में डूबी रहकर अपनी सास कुन्ती से अलग हो धौम्यजी को आगे रखकर वन में निवास करती हूँ। ये सिंह के समान पराक्रमी पाण्डव बलवीर्य में शत्रुओं से बढ़े-चढ़े हैं, इनसे सर्वथा हीन कौरव मुझे भरी सभा में कष्ट दे रहे थे, तो भी इन्होंने क्यों मेरी उपेक्षा की?
पापकर्मों में लगे हुए अत्यन्त दुर्बल, पापी शत्रुओं को दिये हुए ऐसे-ऐसे दुःख मैं सह रही हूँ और दीर्घकाल से चिन्ता की आग में जल रही हूँ। यह प्रसिद्ध है कि मैं दिव्य विधि से एक महान कुल में उत्पन्न हुई हूँ। पाण्डवों की प्यारी पत्नी और महाराज पाण्डु की पुत्रवधु हूँ। मधुसूदन श्रीकृष्ण! मैं श्रेष्ठ और सती-साध्वी होती हुए भी इन पाँचों पाण्डवों के देखते-देखते केश पकड़कर घसीटी गयी। ऐसा कहकर मृदुभाषिणी द्रौपदी कमल कोश के समान कान्तिमान एवं कोमल हाथ से अपना मुँह ढककर फूट-फूटकर रोने लगी।[6]
पांचाल राजकुमारी कृष्णा अपने कठोर, उभरे हुए, शुभ लक्षण तथा सुन्दर स्तनों पर दुःखजनित अश्रुबिन्दुओं की वर्षा करने लगी। कुपित हुई द्रौपदी बार-बार सिसकती और आँसू पोंछती हुई आँसू भरे कण्ठ से बोली- ‘मधुसूदन! ' मेरे लिये न पति हैं, न पुत्र हैं, न बान्धव हैं, न भाई हैं, न पिता हैं और न आप ही हैं। ‘क्योंकि आप सबलोग, नीच मनुष्यों द्वारा जो मेरा अपमान हुआ था, उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, मानो इसके लिये आपके हृदय में तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्ण ने जो मेरी हँसी उड़ायी थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे हृदय से दूर नहीं होता है। ‘श्रीकृष्ण! चार कारणों से आपको सदा मेरी रक्षा करनी चाहिये। एक तो आप मेरे सम्बन्धी, दूसरे अग्नि कुण्ड में उत्पन्न होने के कारण मैं गौरवशालिनी हूँ, तीसरे आपकी सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं।'
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने वीरों के उस समुदाय में द्रौपदी से इस प्रकार कहा।
श्रीकृष्ण बोले- भाविनि! तुम जिन पर क्रुद्ध हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी अपने प्राण प्यारे पतियों को अर्जुन के बाण से छिन्न-भिन्न और खून से लथपथ हो मरकर धरती पर पड़ा देख इसे रोयेंगी। पाण्डवों के हित के लिये जो कुछ भी सम्भव है, वह सब करूँगा, शोक न करो। मैं सत्य प्रतिज्ञा पूर्वक कह रहा हूँ कि तुम राज रानी बनोगी। कृष्णे! आसमान फट पड़े, हिमालय पर्वत विदीर्ण हो जाये, पृथ्वी के टुकड़े- टुकड़े हो जायें और समुद्र सूख जाये, किंतु मेरी यह बात झूठी नहीं हो सकती। द्रौपदी ने अपने बातों के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर तिरछी चितवन से अपने मँझले पति अर्जुन की ओर देखा। महाराज! तब अर्जुन ने द्रौपदी से कहा- ‘ललिमायुक्त सुन्दर नेत्रोंवाली देवि! वरवर्णिनि! रोओ मत! भगवान मधुसूदन जो कुछ कह रहे हैं, वह अवश्य होकर रहेगा; टल नहीं सकता।'
धृष्टद्युम्न ने कहा - बहिन! मैं द्रोण को मार डालूँगा, शिखण्डी भीष्म का वध करेंगे, भीमसेन दुर्योधन को मार गिरायेंगे और अर्जुन कर्ण को यमलोक भेज देंगे। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम का आश्रय पाकर हम लोग युद्ध में शत्रुओं के लिये अजेय हैं। इन्द्र भी हमें रण में परास्त नहीं कर सकते। फिर धृतराष्ट्र के पुत्रों की तो बात ही क्या है?
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! धृष्टद्युम्न के ऐसा कहने पर वहाँ बैठे हुए वीर भगवान श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे। उनके बीच में बैठे हुए महाबाहु केशव ने उनसे ऐसा कहा।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 39-57
- ↑ तो भी ये मेरी रक्षा न कर सके
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 58-77
- ↑ आदि पर्व के 147वें अध्याय के लाक्षा गृहदाह प्रसंग में बतलाया है कि ‘भीमसेन ने माता को तो कंधे पर चढ़ा लिया और नकुल, सहदेव को गोद में उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयों को दोनों हाथों से पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे।’ इस कथन से द्रौपदी के वचन भिन्न हैं; क्योंकि द्रौपदी का उस समय विवाह नहीं हुआ था, अतः द्रौपदी इस बात को ठीक-ठीक नहीं जानती थी, इसी से वह लोगों के मुख से सुनी-सुनायी बात अनुमान से कह रही है; अतः लाक्षा गृहदाह के प्रसंग की बात ही ठीक है।
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 78-99
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 100-122
- ↑ महाभारत वन पर्व अध्याय 12 श्लोक 123-136
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| अष्टावक्र के अंगों का सीधा होना
| कर्दमिलक्षेत्र आदि तीर्थों की महिमा
| रैभ्य तथा यवक्रीत मुनि की कथा
| ऋषियों का अनिष्ट करने से मेघावी की मृत्यु
| यवक्रीत का रैभ्य की पुत्रवधु से व्यभिचार तथा मृत्यु
| भरद्वाज का पुत्रशोक में विलाप
| भरद्वाज का अग्नि में प्रवेश
| अर्वावसु की तपस्या तथा रैभ्य, भरद्वाज और यवक्रीत का पुनर्जीवन
| पांडवों की उत्तराखण्ड यात्रा
| भीमसेन का उत्साह तथा पांडवों का हिमालय को प्रस्थान
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन की चिन्ता तथा उनके गुणों का वर्णन
| पांडवों द्वारा गंगा की वन्दना
| लोमश द्वारा पांडवों से नरकासुर वघ की कथा
| लोमश द्वारा पांडवों से वसुधा उद्धार की कथा
| गन्दमाधन यात्रा में पांडवों का आँधी-पानी से सामना
| द्रौपदी की मूर्छा तथा भीम के स्मरण से घटोत्कच का आगमन
| घटोत्कच की सहायता से पांडवों का गंधमादन पर्वत तथा बदरिकाश्रम में प्रवेश
| बदरीवृक्ष, नरनारायणाश्रम तथा गंगा का वर्णन
| भीमसेन का सौगन्धिक कमल लाने के लिए जाना
| भीमसेन की कदलीवन में हनुमान से भेंट
| भीमसेन और हनुमान का संवाद
| हनुमान का भीमसेन से रामचरित्र का संक्षिप्त वर्णन
| हनुमान द्वारा चारों युगों के धर्मों का वर्णन
| हनुमान द्वारा भीमसेन को विशाल रूप का प्रदर्शन
| हनुमान द्वारा चारों वर्णों के धर्मों का प्रतिपादन
| भीमसेन को आश्वासन देकर हनुमान का अन्तर्धान होना
| भीमसेन का सौगन्धिक वन में पहुँचना
| क्रोधवश राक्षसों का भीमसेन से सामना
| भीमसेन द्वारा क्रोधवश राक्षसों की पराजय
| युधिष्ठिर आदि का सौगन्धिक वन में भीमसेन के पास पहुँचना
| पांडवों का पुन: नरनारायणाश्रम में लौटना
जटासुरवध पर्व
जटासुर द्वारा द्रौपदी, युधिष्ठिर, नकुल एवं सहदेव का हरण
| भीमसेन द्वारा जटासुर का वध
यक्षयुद्ध पर्व
पांडवों का नरनारायणाश्रम से वृषपर्वा के जाना
| पांडवों का राजर्षि आर्ष्टिषेण के आश्रम पर जाना
| आर्ष्टिषेण का युधिष्ठिर के प्रति उपदेश
| पांडवों का आर्ष्टिषेण के आश्रम पर निवास
| भीमसेन द्वारा मणिमान का वध
| कुबेर का गंधमादन पर्वत पर आगमन
| कुबेर की युधिष्ठिर से भेंट
| कुबेर का युधिष्ठिर आदि को उपदेश तथा सान्त्वना
| धौम्य द्वारा मेरु शिखरों पर स्थित ब्रह्मा-विष्णु आदि स्थानों का वर्णन
| धौम्य का युधिष्ठिर से सूर्य-चन्द्रमा की गति एवं प्रभाव का वर्णन
| पांडवों की अर्जुन के लिए उत्कंठा
निवातकवच युद्ध पर्व
अर्जुन का स्वर्गलोक से आगमन तथा भाईयों से मिलन
| इन्द्र का आगमन तथा युधिष्ठिर को सान्त्वना देना
| अर्जुन का अपनी तपस्या यात्रा के वृत्तान्त का वर्णन
| अर्जुन द्वारा शिव से संग्राम एवं पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा
| अर्जुन का युधिष्ठिर से स्वर्गलोक में प्राप्त अपनी अस्त्रविद्या का कथन
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्ध की तैयारी का कथन
| अर्जुन का पाताल में प्रवेश
| अर्जुन का निवातकवच दानवों के साथ युद्धारम्भ
| अर्जुन और निवातकवचों का युद्ध
| अर्जुन के साथ निवातकवचों के मायामय युद्ध का वर्णन
| अर्जुन द्वारा निवातकवचों का वध
| अर्जुन द्वारा हिरण्यपुरवासी पौलोम तथा कालकेयों का वध
| इन्द्र द्वारा अर्जुन का अभिनन्दन
| युधिष्ठिर की अर्जुन से दिव्यास्त्र-दर्शन की इच्छा
| नारद आदि का अर्जुन को दिव्यास्त्र प्रदर्शन से रोकना
आजगरपर्व
भीमसेन की युधिष्ठिर से बातचीत
| पांडवों का गंधमादन से प्रस्थान
| पांडवों का बदरिकाश्रम में निवास
| पांडवों का सरस्वती-तटवर्ती द्वैतवन में प्रवेश
| द्वैतवन में भीमसेन का हिंसक पशुओं को मारना
| भीमसेन को अजगर द्वारा पकड़ा जाना
| भीमसेन और सर्परूपधारी नहुष का वार्तालाप
| युधिष्ठिर द्वारा भीम की खोज
| युधिष्ठिर का सर्परूपधारी नहुष के प्रश्नों का उत्तर देना
| सर्परूपधारी नहुष का भीमसेन को छोड़ना तथा सर्पयोनि से मुक्ति
मार्कण्डेयसमास्यापर्व
युधिष्ठिर आदि का पुन: द्वैतवन से काम्यकवन में प्रवेश
| पांडवों के पास कृष्ण, मार्कण्डेय तथा नारद का आगमन
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर से कर्मफल-भोग का विवेचन
| तपस्वी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणों का माहात्म्य
| ब्राह्मण महिमा के विषय में अत्रिमुनि तथा राजा पृथु की प्रशंसा
| तार्क्ष्यमुनि और सरस्वती का संवाद
| वैवस्वत मनु का चरित्र और मत्स्यावतार कथा
| चारों युगों की वर्ष-संख्या तथा कलियुग के प्रभाव का वर्णन
| प्रलयकाल का दृश्य और मार्कण्डेय को बालमुकुन्द के दर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान के उदर में प्रवेश और ब्रह्माण्डदर्शन
| मार्कण्डेय का भगवान बालमुकुन्द से वार्तालाप
| बालमुकुन्द का मार्कण्डेय को अपने स्वरूप का परिचय देना
| मार्कण्डेय द्वारा कृष्ण महिमा का प्रतिपादन
| युगान्तकालिक कलियुग समय के बर्ताव का वर्णन
| कल्कि अवतार का वर्णन
| भगवान कल्कि द्वारा सत्ययुग की स्थापना
| मार्कण्डेय का युधिष्ठिर के लिए धर्मोपदेश
| इक्ष्वाकुवंशी परीक्षित का मण्डूकराज की कन्या से विवाह
| शल और दल के चरित्र तथा वामदेव मुनि की महत्ता
| इन्द्र और बक मुनि का संवाद
| सुहोत्र और शिबि की प्रशंसा
| ययाति द्वारा ब्राह्मण को सहस्र गौओं का दान
| सेदुक और वृषदर्भ का चरित्र
| इन्द्र और अग्नि द्वारा राजा शिबि की परीक्षा
| नारद द्वारा शिबि की महत्ता का प्रतिपादन
| इन्द्रद्युम्न तथा अन्य चिरजीवी प्राणियों की कथा
| मार्कण्डेय द्वारा विविध दानों का महत्त्व वर्णन
| मार्कण्डेय द्वारा विविध विषयों का वर्णन
| उत्तंक मुनि की कथा
| उत्तंक का बृहदश्व से धुन्धु वध का आग्रह
| ब्रह्मा की उत्पत्ति
| विष्णु द्वारा मधु-कैटभ का वध
| धुन्धु की तपस्या और ब्रह्मा से वर प्राप्ति
| कुवलाश्व द्वारा धुन्धु का वध
| कुवलाश्व को देवताओं से वर की प्राप्ति
| पतिव्रता स्त्री और माता-पिता की सेवा का माहात्म्य
| कौशिक ब्राह्मण तथा पतिव्रता का उपाख्यान
| कौशिक का धर्मव्याध के पास जाना
| धर्मव्याध द्वारा वर्णधर्म का वर्णन और जनकराज्य की प्रशंसा
| धर्मव्याध द्वारा शिष्टाचार का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा हिंसा और अहिंसा का विवेचन
| धर्मव्याध द्वारा धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा विषय सेवन से हानि, सत्संग से लाभ का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा ब्राह्मी विद्या का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा पंचमहाभूतों के गुणों का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा इन्द्रियनिग्रह का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा तीन गुणों के स्वरूप तथा फल का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा प्राणवायु की स्थिति का वर्णन
| धर्मव्याध द्वारा परमात्म-साक्षात्कार के उपाय
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का दिग्दर्शन
| धर्मव्याध द्वारा माता-पिता की सेवा का उपदेश
| धर्मव्याध का कौशिक ब्राह्मण से अपने पूर्वजन्म की कथा कहना
| धर्मव्याध-कौशिक संवाद का उपंसहार
| अग्नि का अंगिरा को अपना प्रथम पुत्र स्वीकार करना
| अंगिरा की संतति का वर्णन
| बृहस्पति की संतति का वर्णन
| पांचजन्य अग्नि की उत्पत्ति
| पांचजन्य अग्नि की संतति का वर्णन
| अग्निस्वरूप तप और भानु मनु की संतति का वर्णन
| सह अग्नि का जल में प्रवेश
| अथर्वा अंगिरा द्वारा सह अग्नि का पुन: प्राकट्य
| इन्द्र द्वारा केशी से देवसेना का उद्धार
| इन्द्र का देवसेना के साथ ब्रह्मा और ब्रह्मर्षियों के आश्रम पर जाना
| अद्भुत अग्नि का मोह और उनका वनगमन
| स्कन्द की उत्पत्ति
| स्कन्द द्वारा क्रौंच आदि पर्वतों का विदारण
| विश्वामित्र का स्कन्द के जातकर्मादि तेरह संस्कार करना
| अग्निदेव आदि द्वारा बालक स्कन्द की रक्षा करना
| इन्द्र तथा देवताओं को स्कन्द का अभयदान
| स्कन्द के पार्षदों का वर्णन
| स्कन्द का इन्द्र के साथ वार्तालाप
| स्कन्द का देवताओं के सेनापति पद पर अभिषेक
| स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह
| कृत्तिकाओं को नक्षत्रमण्डल में स्थान की प्राप्ति
| मनुष्यों को कष्ट देने वाले विविध ग्रहों का वर्णन
| स्कन्द द्वारा स्वाहा देवी का सत्कार
| रुद्रदेव के साथ स्कन्द और देवताओं की भद्रवट यात्रा
| देवासुर संग्राम तथा महिषासुर वध
| कार्तिकेय के प्रसिद्ध नामों का वर्णन
द्रौपदीसत्यभामासंवाद पर्व
द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को सती स्त्री के कर्तव्य की शिक्षा
| द्रौपदी द्वारा सत्यभामा को पतिसेवा की शिक्षा
| सत्यभामा का द्रौपदी को आश्वासन
घोषयात्रा पर्व
पांडवों का समाचार सुनकर धृतराष्ट्र का खेद तथा चिंतापूर्ण उद्गार
| शकुनि और कर्ण द्वारा दुर्योधन को पांडवों के पास जाने के लिए उभाड़ना
| दुर्योधन द्वारा कर्ण और शकुनि की मंत्रणा स्वीकार करना
| दुर्योधन आदि को द्वैतवन जाने हेतु धृतराष्ट्र की अनुमति
| द्वैतवन में दुर्योधन के सैनिकों तथा गंधर्वों में कटु संवाद
| कौरवों का गंधर्वों से युद्ध और कर्ण की पराजय
| गंधर्वों द्वारा दुर्योधन आदि की पराजय और उनका अपहरण
| कौरवों को छुड़ाने हेतु युधिष्ठिर का भीमसेन को आदेश
| पांडवों का गंधर्वों के साथ युद्ध
| पांडवों द्वारा गंधर्वों की पराजय
| चित्रसेन, अर्जुन तथा युधिष्ठिर संवाद और दुर्योधन का छुटकारा
| दुर्योधन का मार्ग में ठहरना और कर्ण द्वारा उसका अभिनन्दन
| दुर्योधन का कर्ण को अपनी पराजय का समाचार बताना
| दुर्योधन द्वारा अपनी ग्लानि का वर्णन तथा आमरण अनशन का निश्चय
| दुर्योधन द्वारा दु:शासन को राजा बनने का आदेश
| कर्ण द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन का आमरण अनशन का निश्चय
| दैत्यों का कृत्या द्वारा दुर्योधन को रसातल में बुलाना
| दैत्यों का दुर्योधन को समझाना
| दुर्योधन द्वारा अनशन की समाप्ति और हस्तिनापुर प्रस्थान
| भीष्म का दुर्योधन को पांडवों से संधि करने का प्रस्ताव
| कर्ण के क्षोभपूर्ण वचन और दिग्विजय के लिए प्रस्थान
| कर्ण द्वारा सारी पृथ्वी पर दिग्विजय
| कर्ण की दिग्विजय पर हस्तिनापुर में उसका सत्कार
| दुर्योधन द्वारा वैष्णव यज्ञ की तैयारी
| दुर्योधन के यज्ञ का आरम्भ तथा समाप्ति
| कर्ण द्वारा अर्जुन के वध की प्रतिज्ञा
| युधिष्ठिर की चिन्ता तथा दुर्योधन की शासननीति
मृगस्वप्नोद्भव पर्व
पांडवों का काम्यकवन में गमन
व्रीहिद्रौणिक पर्व
व्यास का पांडवों के पास आगमन
| व्यास का पांडवों से दान की महत्ता का वर्णन
| दुर्वासा द्वारा महर्षि मुद्गल के दानधर्म एवं धैर्य की परीक्षा
| महर्षि मुद्गल का देवदूत से प्रश्न करना
| देवदूत द्वारा स्वर्गलोक के गुण-दोष तथा विष्णुधाम का वर्णन
| व्यास का युधिष्ठिर को समझाकर अपने आश्रम लौटना
द्रौपदीहरण पर्व
दुर्योधन द्वारा दुर्वासा का आतिथ्य सत्कार
| दुर्योधन द्वारा दुर्वासा को प्रसन्न करना और युधिष्ठिर के पास भेजना
| द्रौपदी के स्मरण करने पर श्रीकृष्ण का प्रकट होना
| कृष्ण द्वारा पांडवों को दुर्वासा के भय से मुक्त करना
| जयद्रथ का द्रौपदी पर मोहित होना
| कोटिकास्य का द्रौपदी को जयद्रथ का परिचय देना
| द्रौपदी का कोटिकास्य को उत्तर
| जयद्रथ और द्रौपदी का संवाद
| जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का अपहरण
| पांडवों द्वारा जयद्रथ का पीछा करना
| द्रौपदी का जयद्रथ से पांडवों के पराक्रम का वर्णन
| पांडवों द्वारा जयद्रथ की सेना का संहार
| युधिष्ठिर का द्रौपदी और नकुल-सहदेव के साथ आश्रम पर लौटना
| भीम और अर्जुन द्वारा वन में जयद्रथ का पीछा करना
जयद्रथविमोक्षण पर्व
भीम द्वारा जयद्रथ को बंदी बनाकर युधिष्ठिर के समक्ष उपस्थित करना
| शिव द्वारा जयद्रथ से श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
रामोपाख्यान पर्व
युधिष्ठिर का अपनी दुरावस्था पर मार्कडेण्य मुनि से प्रश्न करना
| राम आदि का जन्म तथा कुबेर की उत्पत्ति का वर्णन
| रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण, खर और शूर्पणखा की उत्पत्ति
| कुबेर का रावण को शाप देना
| देवताओं का रीछ और वानर योनि में संतान उत्पन्न करना
| राम के राज्याभिषेक की तैयारी
| राम का वन को प्रस्थान
| भरत की चित्रकूट यात्रा
| राम द्वारा राक्षसों का संहार तथा रावण-शूर्पणखा वार्तालाप
| राम द्वारा मारीच का वध
| रावण द्वारा सीता का अपहरण
| रावण द्वारा जटायु वध एवं राम द्वारा उसका अंत्येष्टि संस्कार
| राम द्वारा कबन्ध राक्षस का वध
| राम और सुग्रीव की मित्रता
| राम द्वारा बाली का वध
| अशोक वाटिका में सीता को त्रिजटा का आश्वासन
| रावण और सीता का संवाद
| राम का सुग्रीव पर कोप
| सुग्रीव का सीता की खोज में वानरों को भेजना
| हनुमान द्वारा लंकायात्रा का वृत्तान्त सुनाना
| वानर सेना का संगठन
| नल द्वारा समुद्र पर सेतु का निर्माण
| विभीषण का अभिषेक तथा वानर सेना का लंका की सीमा में प्रवेश
| अंगद का रावण के पास जाकर राम का संदेश सुनाना
| राक्षसों और वानरों का घोर संग्राम
| राम और रावण की सेनाओं का द्वन्द्वयुद्ध
| प्रहस्त और धूम्राक्ष का वध
| रावण द्वारा युद्ध हेतु कुम्भकर्ण को जगाना
| कुम्भकर्ण, वज्रवेग और प्रमाथी का वध
| इन्द्रजित का मायामय युद्ध तथा श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्च्छा
| राम-लक्ष्मण का अभिमंत्रित जल से नेत्र धोना
| लक्ष्मण द्वारा इन्द्रजित का वध
| रावण का सीता के वध हेतु उद्यत होना
| राम और रावण का युद्ध तथा रावण का वध
| राम का सीता के प्रति संदेह
| देवताओं द्वारा सीता की शुद्धि का समर्थन
| राम का आयोध्या आगमन तथा राज्याभिषेक
| मार्कण्डेय द्वारा युधिष्ठिर को आश्वासन
पतिव्रतामाहात्म्य पर्व
राजा अश्वपति को सावित्री नामक कन्या की प्राप्ति
| सावित्री का पतिवरण के लिए विभिन्न देशों में भ्रमण
| सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह करने का दृढ़ निश्चय
| सावित्री और सत्यवान का विवाह
| सावित्री की व्रतचर्या
| सावित्री का सत्यवान के साथ वन में जाना
| सावित्री और यम का संवाद
| यमराज का सत्यवान को पुन: जीवित करना
| सावित्री और सत्यवान का वार्तालाप
| राजा द्युमत्सेन की सत्यवान के लिए चिन्ता
| सावित्री द्वारा यम से प्राप्त वरों का वर्णन
| द्युमत्सेन का राज्याभिषेक तथा सावित्री को सौ पुत्रों और सौ भाइयों की प्राप्ति
कुण्डलाहरण पर्व
सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने के लिए सचेत करना
| कर्ण का इन्द्र को कवच-कुण्डल देने का ही निश्चय करना
| सूर्य द्वारा कर्ण को कवच-कुण्डल इन्द्र को न देने का आदेश
| कर्ण का इन्द्र से शक्ति लेकर ही कवच-कुण्डल देने का निश्चय
| कुन्तिभोज के यहाँ दुर्वासा का आगमन
| कुन्तुभोज द्वारा दुर्वासा की सेवा हेतु पृथा को उपदेश देना
| कुन्ती का पिता से वार्तालाप एवं ब्राह्मण की परिचर्या
| कुन्ती को तपस्वी ब्राह्मण द्वारा मंत्र का उपदेश
| कुन्ती द्वारा सूर्य देवता का आवाहन
| कुन्ती-सूर्य संवाद
| सूर्य द्वारा कुन्ती के उदर में गर्भस्थापन
| कर्ण का जन्म और कुन्ती का विलाप
| अधिरथ सूत और उसकी पत्नी राधा को बालक कर्ण की प्राप्ति
| कर्ण की शिक्षा-दीक्षा और उसके पास इन्द्र का आगमन
| कर्ण को इन्द्र से अमोघ शक्ति की प्राप्ति
| इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना
आरणेय पर्व
ब्राह्मण की अरणि एवं मन्थन काष्ठ विषयक प्रसंग
| युधिष्ठिर द्वारा नकुल को जल लाने का आदेश
| नकुल आदि चार भाइयों का सरोवर तट पर अचेत होना
| यक्ष और युधिष्ठिर का संवाद
| यक्ष और युधिष्ठिर का प्रश्नोत्तर
| युधिष्ठिर के उत्तर से संतुष्ट यक्ष द्वारा चारों भाइयों को जीवित करना
| यक्ष का धर्म के रूप में प्रकट होकर युधिष्ठिर को वरदान देना
| युधिष्ठिर को महर्षि धौम्य द्वारा समझाया जाना
| भीमसेन का उत्साह और पांडवों का परस्पर परामर्श
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