दुर्योधन का कृपाचार्य को उत्तर देना

महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत पाँचवें अध्याय में संजय ने दुर्योधन द्वारा कृपाचार्य को पांडवों की संधि स्वीकार न करते हुए उत्तर देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

दुर्योधन का कृपाचार्य को उत्तर देना

संजय कहते हैं- प्रजानाथ! तपस्वी कृपाचार्य के ऐसा कहने पर दुर्योधन जोर-जोर से गरम साँस खींचता हुआ कुछ देर तक चुपचाप बैठा रहा। दो घड़ी तक सोच-विचार करने के पश्चात् शत्रुओं को संताप देने वाले आपके उस महामनस्वी पुत्र ने शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य को इस प्रकार उत्तर दिया। 'विप्रवर! एक हितैषी सुहृद को जो कुछ कहना चाहिये, वह सब आपने कह सुनाया। इतना ही नहीं, आपने प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करते हुए मेरी भलाई के लिये सब कुछ किया है। सब लोगों ने आपको शत्रुओं की सेनाओं में घुसते और अत्यन्त तेजस्वी महारथी पाण्डवों के साथ युद्ध करते हुए बारंबार देखा है। आप मेरे हितचिन्तक सुहृदय हैं तो भी आपने मुझे जो बात सुनायी है, वह सब मेरे मन को उसी तरह पसंद नहीं आती, जैसे मरणासन्न रोगी को दवा अच्छी नहीं लगती है। महाबाहो! विप्रवर! आपके युक्ति और कारणों से सुसंगत, हितकारक एवं उत्तम बात कही है तो भी वह मुझे अच्छी नहीं लग रही है। हम लोगों ने राजा युधिष्ठिर के साथ छल किया है। वे महाधनी थे, हमने उन्हें जूए में जीतकर निर्धन बना दिया। ऐसी दशा में वे हम लोगों पर विश्वास कैसे कर सकते हैं? हमारी बातों पर उन्हें फिर श्रद्धा कैसे हो सकती है? ब्रह्मन! पाण्डवों के हित में तत्पर रहने वाले श्रीकृष्ण मेरे यहाँ दूत बनकर आये थे, किंतु मैंने उन हृषीकेश के साथ धोखा किया। मेरा वह कर्म अतिचारपूर्ण था। भला, वे मेरी बात कैसे मानेंगे?

सभा में बलात्कारपूर्वक लायी हुई द्रौपदी ने जो विलाप किया था तथा पाण्डवों का जो राज्य छीन लिया गया था, वह बर्ताव श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सकते। प्रभो! श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों दो शरीर और एक प्राण हैं। वे दोनों एक दूसरे के आश्रित हैं। पहले जो बात मैनें केवल सुन रखी थी, उसे अब प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। अपने भानजे अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण सुख की नींद नहीं सोते हैं। हम सब लोग उनके अपराधी हैं, फिर वे हमें कैसे क्षमा कर सकते हैं? अभिमन्यु के मारे जाने से अर्जुन को भी चैन नहीं है, फिर वे प्रार्थना करने पर भी मेरे हित के लिये कैसे यत्न करेंगे। मझले पाण्डव महाबली भीमसेन का स्वभाव बड़ा ही कठोर है। उन्होंने बड़ी भयंकर प्रतिज्ञा की है। सूखे काठ की तरह वे टूट भले ही जायँ, झुक नहीं सकते। दोनों भाई नकुल और सहदेव तलवार बाँधे और कवच धारण किये हुए यमराज के समान भयंकर जान पड़ते हैं। वे दोनों वीर मुझसे वैर मानते हैं। द्विजश्रेष्ठ! धृष्टद्युम्न और शिखण्डी ने भी मेरे साथ वैर बाँध रखा है, फिर वे दोनों मेरे हित के लिये कैसे यत्न कर सकते हैं? इसलिये अब उन शत्रुसंतापी वीरों को युद्ध से रोका नहीं जा सकता। जबसे द्रौपदी को क्लेश दिया गया, तब से वह दुखी हो मेरे विनाश का संकल्प लेकर प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर सोया करती है। जब तक वैर का पूरा बदला न चुका लिया जाय, तब तक के लिये उसने यह व्रत ले रखा है।[1]

द्रौपदी अपने पतियों के अभीष्ट मनोरथ की सिद्धि के लिये बड़ी कठोर तपस्या करती है और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की सगी बहन सुभद्रा मान और अभिमान को दूर फेंककर सदा दासी की भाँति द्रौपदी की सेवा करती है। इस प्रकार इन सारे कार्यों के रूप में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी, जो किसी प्रकार बुझ नहीं सकती। अभिमन्यु के विनाश से जिसके हृदय में गहरी चोट पहुँची है, उस अर्जुन के साथ मेरी संधि कैसे हो सकती है ? जब मैं समुद्र से घिरी हुई सारी पृथ्वी का एकच्छत्र राजा की हैसियत से उपभोग कर चुका हूँ, तब इस समय पाण्डवों की कृपा का पात्र बनकर कैसे राज्य भोगूँगा। समस्त राजाओं के ऊपर सूर्य के समान प्रकाशित होकर अब दास की भाँति युधिष्ठिर के पीछे-पीछे कैसे चलूँगा। स्वयं बहुत-से भोग भोगकर और प्रचुर धनदान करके अब दीन पुरुषों के साथ दीनतापूर्ण जीविका का आश्रय ले किस प्रकार निर्वाह कर सकूँगा? आपने स्नेहवश हित की ही बात कही है। आपकी इस बात में मैं दोष नहीं निकालता और न इसकी निंदा ही करता हूँ। मेरा कथन तो इतना ही है कि अब किसी प्रकार संधि का अवसर नहीं रह गया है। मेरी ऐसी ही मान्यता है। शत्रुओं को तपाने वाले वीर! अब मैं अच्छी तरह युद्ध करने में ही उत्तम नीति का पालन समझ रहा हूँ। हमारा यह समय कायरता दिखाने का नहीं, उत्साहपूर्वक युद्ध करने का ही है'।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-19
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 5 श्लोक 20-35

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