तुम अपने तप की सुधि नाहीं, जो तनु गारि कियौ।
संबत पाँच-पाँच की सबहीं, अजहूँ प्रगट हियौ।।
वह तुषार, वह तपनि तपस्या, वह पावस झकझोर।
वह लरिकई मातु-पितु कौ हित, वैसी प्रीतिहिं तोर।।
तबहीं तैं तनु बिरह जरत है निसि-बासर यौं जात।
कैसैं तप निरफलहिं जाइगौ, सुनहु सुर यह बात।।1348।।