ता कारन लछिमन सर लाग्यौक -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
कहौ कपि रघुपति कौ संदेस।
कुसल बंधु लछिमन, बैदेही, श्रीपति सकल-नरेस।
जानि पूछौ तुम कुसल नाथ की, सुनौ भरत वलबीर।
बिलख-बदन, दुख भरे सिया के, हैं जलनिधि कैं, तीर।
बन मैं बसत, निशाचर छल करि, हरी सिया मम मात।
ता कारन लछिमन सर लाग्यौ, भए राम बिनु भ्रात।
यह सुनि कौसिल्या सिर ढ़ोरयौ, सबनि पुहुमि तन जोयौ।
त्राहि-त्राहि कहि, पुत्र-पुत्र कहि मातु सुमित्रा रोयौ।
धन्य सुपुत्र पिता-पन राख्यौ, धनि सुवधू कुल-लाज।
सेवक धन्यौ अंत अवसर जो आवै प्रभु कैं काज।
पुनि धरि धीर कह्यौ, धनि लछिमन, राम काज जो आवै।
सूर जियै तौ जग जस पावै मरि सुरलोक सिधावै॥151॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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